अप्रैल 15, 2021

अथ: कोरोना कथा - सुनसान हैं सारे तीरथ नदियां सारी ( दिलकश नज़ारा ) डॉ लोक सेतिया

सुनसान हैं सारे तीरथ नदियां सारी ( दिलकश नज़ारा ) डॉ लोक सेतिया 

दुनिया भरके तमाम लोग जीवन भर घूमते रहे जिसकी मिलन की दर्शन की आस लिए नदियां पर्वत तीरथ कभी उसको कभी इसको विधाता समझ कर उसको छोड़ और जाने क्या क्या देखा। प्यास बढ़ती गई इक बूंद पीने को नहीं मिली उस प्यार के अथाह सागर से। ज़िंदगी कब गुज़री मौत सामने खड़ी दिखाई दी तब समझे व्यर्थ भटकते रहे हासिल क्या हुआ। पाप धुले नहीं दर्द मिटे नहीं राहत का कोई एहसास हुआ नहीं। जो खुद हमारे भीतर रहता है कस्तूरी मृग की तरह हम भागते रहे दुनिया भर में उसके पीछे और पाया नहीं अंदर झांका नहीं कभी। आसान था मुश्किल बना दिया मन आत्मा परमात्मा का संबंध बनाना। अंतिम घड़ी तक बाहरी शोर तमाशे को समझते रहे सच है और सच अपने अंदर मरता रहा कभी पहचाना नहीं सत्य ईश्वर को। बोध किया नहीं बुद्ध को पढ़ते रहे दुनिया को जाना खुद को जानना भूल गए।  
 
पावन नदी तालाब और बड़े बड़े आलीशान भवन जिन में तमाम धर्म के ईश्वर देवी देवता खुदा अल्लाह वाहेगुरु जीसस का नाम लिखा है सुनसान नज़र आते हैं। ऊपर किसी आसमान पर बैठा भगवान सोच रहा है कैसे ये करिश्मा हो गया है। शायद लोगों ने पाप करना छोड़ दिया है तभी पाप धोने को पावन नदी में नहाने की ज़रूरत नहीं रही और खुदा से ईश्वर से जीसस वाहेगुरु से हाथ जोड़ मांगने की आदत छोड़ दी खुद कोशिश महनत से काबलियत से जितना हासिल कर सकते हैं उसको पाकर संतुष्ट रहने लगे हैं। इंसान को अपनी ताकत और समझ पर यकीन हो गया है किसी भी भगवान की कोई ज़रूरत ही नहीं रही है। सभी ईश्वर खुदा भगवान अल्लाह यीशु एक ही हैं और अपने बनाये इंसान को अपने खुद बनाये धर्म के जाल से मुक्त हुआ देख कर सभी चिंताओं से मुक्त होकर चैन महसूस करते हैं। 
 
दुनिया बनाने वाले ने इंसान बनाया था और सब कुछ दिया था जीवन बिताने रहने को। बस यही एक दुनिया बनाई थी मगर आदमी को जाने किसलिए क्या क्या हासिल करने की तलाश करने की चाह ने भटकाया इधर उधर और सपनों को सच करने को जो मिला था उसकी कीमत नहीं समझ कर उसको दांव पर लगा दिया। विकास और आधुनिकता के जुआघर में जीतने की धुन में हार का जश्न मनाते सदियां बिता दी इंसान इंसानियत को गंवाकर शराफ़त ईमानदारी छोड़कर ज़मीन पर रहना त्याग ऊपर चांद सूरज आकाश को पाने का लोभ लालच करते करते विनाश की तरफ बढ़ता गया। बेबस होकर झूठे सहारे ढूंढने लगा और नदी तालाब धर्म स्थल जा जाकर वास्तविक उजाले की जगह घने अंधकार और काल्पनिक स्वर्ग-नर्क अंधविश्वास में फंसकर खुद अपने साये से ख़ौफ़ खाने लगा। 

शिक्षा विज्ञान और तर्क शक्ति पर कायरता आडंबर अंधविश्वास अधिक भारी पड़े और समझदारी छोड़ मूर्खताओं की तरफ बढ़ता गया। आखिर इक ऐसा रोग फैला जिस ने दुनिया को विवश कर दिया ये समझने को कि कुदरत से खिलवाड़ कर विकास का आधुनिक ढंग कितना खतरनाक है। और जब सामने इक छोटा सा कीटाणु दैत्याकार खड़ा अट्हास करने लगा और कोई धर्म कोई ईश्वर कोई स्नान कोई दर्शन कोई धार्मिक आडंबर किसी काम नहीं आया करोड़ों लोग उपसना आरती ईबादत करते करते थक गए मगर समस्या मिटाने ये तथाकथित शक्तिमान उपयोगी साबित नहीं हुए तब जाकर इंसान की अक़्ल ठिकाने आई और उसको खुद अपने भरोसे जीने और अपनी दुनिया को वास्तव में अच्छी और रहने के काबिल बनाने को निर्णय करना पड़ा कि जो भगवान जो ख़ुदा अल्लाह जीसस देवी देवता इंसान की रक्षा करने उसको बचाने नहीं आया उसको कब तक मनाते रहें। जो सामने खड़ा है उसी दैत्य को मनाना उसकी मिन्नत करना शायद कारगर हो इस लिए सभी दिन रात उसी के नाम उसके गुणगान करने में लगे हैं। भगवान का बुलावा कभी भी आ सकता है ये बात झूठी साबित हुई है बस इक वायरस का साया हर जगह दिखाई देता है उसी से उस से बचाव की तरकीब पूछते हैं। 
 

                          अथ: कोरोना कथा

 


2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर और सार्थक ।
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ऐसे लेखन से क्या लाभ? जिस पर टिप्पणियाँ न आये।
ब्लॉग लेखन के साथ दूसरे लोंगों के ब्लॉगों पर भी टिप्पणी कीजिए।
तभी तो आपकी पोस्ट पर भी लोग आयेंगे।

Dr. Lok Setia ने कहा…

महोदय आपके कमैंट्स के लिए धन्यवाद मगर ये बात अनावश्यक लगती है कि आप मुझे अन्य ब्लॉग पर कमेंट करने को सलाह देते रहते है। अपनी सहूलियत और मर्ज़ी सभी की जैसा उचित लगे हर कोई आज़ाद है और बदले में पढ़ना कमेंट करना मेरा ये कारोबार नहीं है। जिनको अच्छा लगता है पढ़ सकते हैं सौदेबाज़ी साहित्य में कब से होने लगी। सच्ची साफ बात कहना आदत है।