अक्तूबर 22, 2018

शोध अच्छे दिनों पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

        शोध अच्छे दिनों पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

     दादा जी याद किया करते थे वो भी क्या दिन थे दो रूपये में घर की महीने भर की ज़रूरत का सामान मिल जाता था। अच्छे दिन की सही परिभाषा यही है। हर दौर में सुनते हैं ऐसे खराब दिन आएंगे ख्वाब में भी नहीं सोचा था। गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा। तभी समझ जाना था जब कोई अच्छे दिन लाने की बात कर रहा था।  गया वक़्त कभी वापस लौट कर नहीं आता है हां आशिक़ ज़रूर कहते हैं मेहरबान होकर बुला लो मुझे जब चाहो , मैं गया वक़्त नहीं हूं जो आ भी न सकूं। गुज़रे वक़्त की ताबीर नहीं ला सकते तो तस्वीर दिखला रहे हैं , ज़ालिम क्या ज़ुल्म किया करते थे समझाने को ज़ुल्म ढा रहे हैं। देखो आपको भी वही पुराने दिन अच्छे थे समझ आ रहे हैं। बुरा वक़्त ठहरता है जाने का नाम ही नहीं लेता अच्छा वक़्त कब चला गया पता ही नहीं चलता है। जो लोग पछता रहे हैं दिल को अब इस तरह बहला रहे हैं चलो अच्छे दिन नहीं आये तो क्या बुरे दिन बस अभी जा रहे हैं। राज़ की बात है जो आज हम बतला रहे हैं आपको अच्छे दिनों से मिला रहे हैं। सामने देखो , उस तरफ मेरी तरफ नहीं दूसरी तरफ दो हमशक्ल साथ साथ आ रहे हैं। 
 
       अच्छे दिन बुरे दिन दोनों जुड़वां भाई हैं राम और शाम सीता और गीता की तरह। आते जाते रहते हैं उसी घर में बारी बारी से। जब जो जिस घर में रहता है तब उस घर में उसी के जैसे दिन रहते हैं। महलों वाले गरीबों से कहते हैं हम से मत पूछो कितने बेचैन रहते हैं अच्छे दिन हैं मगर बड़े ज़ालिम हैं हर घड़ी लगता है महलों को अभी ढहते हैं। अच्छे दिन का सुख रहता नहीं अधिक दिन जब तक रहता है और अच्छे दिनों की चाहत खुश होने नहीं देती है , बुरे दिन साथ निभाते हैं जाते नहीं आसानी से। इस दुनिया में खलनायक ही अच्छे दिन वापस ला सकता है शरीफ नायक तो बेचारा सितम सहता है। नायक किसी काम का नहीं खलनायक बड़े काम आता है। शराफत से अच्छे दिन नहीं ला सकते आदमी को थोड़ा खराब होना चाहिए , मौका मिलते ही बराबर हिसाब होना चाहिए। बर्बाद करने वाले को भी बर्बाद होना चाहिए। 
 
       अच्छे दिन पूछते हैं भाई बुरे दिन तुम रहते कहां हो , बुरे दिन कहते हैं तेरी तलाश में रहता हूं। हर कोई यही गलती करता है उनकी तलाश में रहता है जो आने नहीं हैं बीत चुके हैं। अच्छे दिन एक सपना है बुरे दिन वास्तविकता है। लोग सपनों के पीछे भागते हैं , राजनीति केवल रेगिस्तान की दूर दूर तक फैली गर्म रेत जैसी है जिसमें जनता प्यासे मृग की तरह लोग चमकती रेत को पानी समझ भागते रहे हैं प्यासे मरने को। शोध जारी है कल जाने किसकी बारी है।

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