नवंबर 17, 2013

शून्य का रहस्य ( व्यंग्य ) डा लोक सेतिया

          शून्य का रहस्य ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     आज शून्य के बारे चर्चा कर रहे हैं। अध्यापक जब शून्य अंक देते हैं तो छात्र निराश हो जाते हैं। जीवन में शून्य आ जाये तो जीना दुश्वार हो जाता है। अगर समझ में आ जाये तो शून्य का अंक बड़े काम का है। गणित में भारत का योगदान है शून्य का ये अंक , इस के दम पर ही विश्व चांद तारों का सफ़र आंक सका है। समाज में कुछ लोगों का योगदान शून्य होता है फिर भी उनका बड़ा नाम होता है। क्योंकि उनके आगे कुछ और लिखा होता है। शून्य से पहले एक से नौ तक कोई संख्या लिखी हो तो शून्य शून्य नहीं रहता। जब किसी के साथ माता पिता का नाम जुड़ा हो , विशेषकर अगर माता पिता सत्ताधारी हों तब संतान शून्य होने के बावजूद अनमोल होती है। उसके जन्म दिन पर बधाई के विज्ञापन अख़बार में , सड़कों पर इश्तिहारों में दीवारों पर दिखाई देते हैं। ऐसा शून्य बड़े काम का होता है। वह किसी राजनैतिक दल का सामान्य कार्यकर्त्ता नहीं बनता कभी , सीधे मुख्यमंत्री -प्रधानमंत्री पद का दावेदार होता है। विचित्र बात है ,हम लोकतंत्र की दुर्दशा का रोना रोते हैं और साथ ही परिवारवाद को फलने फूलने में भी सहयोग देते रहते हैं। नतीजा वही शून्य रहता है। ध्यान से देखें तो हमारे आस पास कितने ही शून्य नज़र आएंगे। आप चाहे जितने शून्य एक साथ खड़े कर लें कुछ फर्क नहीं पड़ता , पांच शून्य भी एक साथ शून्य ही होते हैं लेकिन उनके आगे एक लग जाये तो वे लाख बन जाते हैं।

          हम सौ करोड़ लोग मात्र नौ बार लिखा शून्य का अंक हैं , जब तक हमारे कोई एक खड़ा नहीं होता , किसी काम के नहीं हैं हम। इसलिए समझदार लोग प्रयास करते रहते हैं कि वे शून्य से बड़ा कोई अंक हो जांये और हम जैसे कई शून्य उनके पीछे खड़े रह कर उनका रुतबा बुलंद करें। इसे राजनीति , धर्म , समाज सेवा कुछ भी नाम दे सकते हैं। हज़ारों लाखों में सब से जो अलग नज़र आते हैं आज कभी वो भी शून्य ही थे। मगर उनको तरीका मिल गया कि कैसे शून्य से एक बन सकते हैं। इस सब के बावजूद कोई भी शून्य को अनदेखा कर नहीं सकता है। अगर इनके साथ शून्य नहीं हो तो इनकी हालत पतली हो जाती है।
         
         साहित्य में भी शून्य का महत्व कम नहीं है। लेखक को तमाम उम्र लिखने के बाद भी शून्य राशि का मिलना कोई अचरज की बात नहीं होती। तो कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो साहित्य के कार्यक्रम आयोजित कर के भी अच्छी खासी आमदनी का जुगाड़ कर ऐश करते हैं। उनके लिये साहित्य भी चोखा धंधा है , और वो तलाश कर लेते हैं उन लोगों की जो अपना नाम अख़बार की सुर्ख़ियों में देखना चाहते हैं दानवीर कहलाना चाहते हैं , खुद को समाज सेवक कहलाना चाहते हैं। उनकी समाज सेवा मात्र पैसे दे कर अपना नाम निमंत्रण पत्र पर  आयोजक अथवा मुख्य अतिथि के रूप में छपवाने तक सिमित रहती है। साहित्य , धर्म , समाज सेवा क्या होती  है , इन शब्दों का अर्थ क्या है उनको नहीं मालूम होता , तब भी मंच से इन पर बड़ी बड़ी बातें कर सकते हैं। सर्वगुण सम्पन कहलाते हैं। ऐसे अंगूठा छाप लोग विद्वानों को पाठ पढ़ाते हैं , अपने उन भाषणों द्वारा जो किसी और विद्वान से वे लाये होते हैं लिखवा कर। विद्वान अगर धन कमाना चाहता हो तो उसे ऐसे ही किसी शून्य के साथ मिल कर अपना अस्तित्व मिटाना होता है। कभी समय था जब गणित में प्रथम रहे आदमी को बहुत आदर सम्मान मिला करता था , कारोबार करने वाले उसको अच्छा वेतन देते थे नौकरी पर रख कर ताकि उनका हिसाब किताब बराबर रहे। मगर केल्कुलेटर और कम्प्यूटर ने हालत बदल दी है , लोग अब इंसानों से अधिक विश्वास इन पर करते हैं। खास बात ये है कि कम्प्यूटर की भाषा में भी शून्य का बड़ा महत्व है। इसकी सारी भाषा ही शून्य और एक पर आधारित है।

                   दार्शनिक लोग सदा यही कहते रहे हैं कि शून्य ही सब कुछ है और सभी कुछ शून्य है। हम शून्य से शुरुआत करते हैं और अंत में शून्य ही रह जाता है। धर्म वाले भी कहते हैं " लाये क्या थे जो ले के जाना है " फिर भी हम सभी यही चाहते हैं कि जैसे भी हो सब अपने साथ लेते जायें। शून्य का रहस्य जानना बहुत ज़रूरी है , अगर वो समझ आ जाये तो फिर शून्य से सभी कुछ हासिल किया जा सकता है। जो लोग हमें हर क्षेत्र में शिखर पर दिखाई देते हैं वो खुद कभी शून्य ही हुआ करते थे। बस उन्होंने कभी किसी से शून्य के रहस्य को समझ लिया और जान गये कि किस तरह किसी दूसरी संख्या के पीछे जुड़ना है ताकि उनका महत्व बड़ सके। शून्य की महिमा का बखान करना  बहुत कठिन है। इस का ओर छोर पाना संभव नहीं है। एक साधना है शून्य को अपने पीछे खड़ा करना अपनी संख्या बढ़ाने के लिये। ऐसा करने के बाद कोई शून्य शून्य नहीं रह जाता है।

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