अक्तूबर 24, 2022

ओ रौशनी वालो ( अंधकार की आवाज़ ) डॉ लोक सेतिया

    ओ रौशनी वालो ( अंधकार की आवाज़ ) 

                                 डॉ लोक सेतिया 

उजाला उस जगह करना चाहिए जिस जगह अंधेरा हो , रौशन सड़कों महलों बाज़ारों को चकाचौंध रौशनी से सजाना बाहरी दिखावा करने से भीतर का अंधकार मिटता नहीं बल्कि और अधिक बढ़ाता ही है । जब काली अंधेरी अमावस की रात को दिये जलाकर अंधेरा मिटाया गया होगा तब उसकी अहमियत रही होगी । आज जब चारों तरफ जगमगाहट है सजावट को दिये जलाना अंतर्मन के अंधकार को कम नहीं करता है । कोई बतला रहा था भगवान राम की इक ऐसी मूर्ति बना रहे हैं जो हर दिशा से एक जैसी नज़र आएगी । कण कण में भगवान दिखाई देने की बात कोई नहीं करता आजकल । राजा राम पत्नी सीता संग बनवास से वापस लौटे थे और अयोध्या वासियों ने स्वागत करने को दीप उत्सव मनाया था , अब शासक तो राजाओं से बढ़कर शाही शान-ओ-शौकत से  चकाचौंध चुंधयाती रौशनी में रहते हैं जनता को बनवास मिला हुआ है जिसका कोई अंत दिखाई नहीं देता उन के जीवन में उजाला कब होगा उस दिन वास्तव रामराज और दीपोत्स्व का त्यौहार मनाया जाना चाहिए । जिस देश की अधिकांश जनता भूख गरीबी शोषण अन्याय अत्याचार और असमानता के वातावरण में रहने को अभिशप्त हो वहां त्यौहार का उल्लास केवल धनवान और सुवधा साधन सम्पन्न वर्ग को हो सकता है वो भी तभी अगर उनको आम इंसानों के दुःख दर्द परेशानियों से कोई सरोकार नहीं हो । ऐसे में शासक वर्ग का देश का खज़ाना आडंबर पर बेतहाशा बेदर्दी से खर्च करना लोकतंत्र और संविधान के ख़िलाफ़ गुनाह ही समझा जाना चाहिए । अधिक विस्तार से कहना व्यर्थ है अपनी पहली कविता दोहराता हूं । मन की बेचैनी अभी भी कायम है ।  

  बेचैनी ( नज़्म )  

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास।
 

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2 टिप्‍पणियां:

sube singh sujan ने कहा…

बहुत खूब

Onkar Singh 'Vivek' ने कहा…

वाह वाह,मार्मिक और चिंतन को प्रेरित करती अभिव्यक्ति।