बिना शीर्षक की दास्तान ( कुछ कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया
सोचा तो था आज कुछ नहीं लिखना बस सोचना समझना है। सुबह पहला गीत सुनाई दिया मन रे तू काहे न धीर धरे। थोड़ा चैन दिल को रूह को भी सुकून मिला बेचैनी को करार आया भी। चलते चलते सैर पर कुछ समझ आया तो भूल जाने का डर भी है इसलिए लिखना ज़रूरी हो गया। तक़रीर लिखते हैं लिख कर रखते हैं ताकि सनद रहे ये भाषा तो सरकारी दस्तावेज़ लिखने वालों की हुआ करती थी कोई करारनामा कोई अनुबंध कोई वसीयत पंजीकृत करवाते समय गवाही भी साथ ज़रूरी हुआ करती थी। मेरी बात की गवाही भला कौन देगा सभी तो मुखालिफ राय रखते हैं सहमत नहीं कोई भी अपने साथ मनवाना आता नहीं मानता मैं भी कब हूं अव्वल दर्जे का अड़ियल अपनी बात पर टिका रहता हूं लोग दुनियादारी समझते हैं जब जिस बात से बात बनती हो बात बदलते वक़्त नहीं लगाते। ऐसी अजनबी लोगों की दुनिया है जो कहने को मेरी है जबकि सच में मेरा कुछ भी नहीं है अपना कोई भी मुझे अपना लगता नहीं है। हर किसी के अपनेपन की इक कीमत है और सबको मेरी कीमत कुछ भी नहीं लगती है और खुद मैंने भी अपना दाम लगवाना स्वीकार नहीं किया कभी। जो चीज़ बेमोल मिलती है कोई कीमत नहीं देनी पड़ती उसको कोई तिजोरी में संभाल के क्यों रखेगा।
किसी बागबां ने अपने आंगन में पौधा लगाया था सोचकर कि बड़ा होकर फलदार और छाया देने वाला होगा। थोड़ा बढ़ने लगा तभी समझ गए कि ये कुछ और ही है उसको पहचान नहीं थी इस पौधे के पत्ते कड़वे हैं मगर दवा का काम करते हैं इस के फूल सुगंध देते हैं मगर डाली से तोड़ते ही मुरझा जाते हैं। अकेला पौधा बाकी सब ऊंचे पेड़ों से अलग अकेला अजनबी सा महसूस होता उनको भी लगता कि हमारे बीच ये क्या क्यों उग आया है। माली ने कितनी बार उखाड़ कर खत्म करना चाहा मगर पौधे की जड़ रह जाती फिर पनप आता। बागबां को हिसाब लगाना था कितना पानी कितना भोजन कितना खर्च हुआ है किसी तरह से लागत वसूल करनी थी। समझता था ये शायद खोटा सिक्का है मगर कभी लगता कि खोटा सिक्का भी शायद वक़्त पर काम आ ही जाए। बागबां की बदनसीबी जो जब पौधा खुशबू बांटने लगा थोड़ी छांव देने लायक हुआ तो बागबां अचानक दुनिया से रुख्सत हो गया। पौधे को किसी और माली के हवाले कर गया जाते जाते जैसे ही पता चला इसका फायदा उठा सकते हैं और इसकी डाली पत्ते जड़ फूल सभी दवा का काम करते हैं।
माली ने जिस बाग़ में लगाया उस को लाकर उसके मालिक को रंगीन बाज़ार में बिकने वाले फूल चाहिएं थे अपनी दुकान पर सजाने को शोभा बढ़ाने को। इसकी सुगंध भाती थी और जब कभी दवा की ज़रूरत पड़ती काम भी आता था मगर आमदनी कुछ भी नहीं होती थी कोई सजावट भी नहीं की जा सकती थी। बस न रखने की चाहत न फेंकने का मन होता अधर में लटकते हुए फालतू सा रहने दिया पौधे को कुछ विचार कर कि शायद किसी दिन इसकी कोई कीमत मिल जाएगी।
दुनिया के बाज़ार में रिश्तों की बोली लगाई जाती है। समझदारी की अपनी परिभाषा है जो किसी भी तरह अपना मकसद हासिल कर लेता है बेशक किसी को अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से बहलाकर या कोई लालच दिखलाकर। जब जिसकी ज़रूरत उसी की तरफ की बात करता है सफल रहता है अपना सामान बढ़ा चढ़ा कर महंगे दाम बेचकर मुनाफा कमाता है सब को अच्छा लगता है। मगर जब कोई सच की बात कहता है झूठ का कवर नहीं लगाता नंगा सच लेकर खड़ा होता है तब उसका सामान बिकता ही नहीं दुनिया के बाज़ार में। सच खरीदने की हैसियत ही नहीं होती तभी बिना बिका रह जाता है। सच्चा शराफत से रहने वाला आदमी किसी भी रिश्तेदार किसी भी संबंधी किसी भी दोस्त को देर तक अच्छा नहीं लगता है। बस अपने मतलब पाने तक उसको भला बताते हैं उल्लू बनाने को और काम निकलते ही दूध की मक्खी सा बाहर कर देते हैं।
जान लिया है नसीब अपना यही है जिस किसी से वफ़ा की उसी से अपमानित होकर लौटना पड़ा है। फिर भी कोई मन में मैल नहीं रख खुद अपने संग रहने की कोशिश करने लगा तो हर किसी को ये भी पसंद नहीं आई बात। हमारे बगैर भला ये कैसे रह सकता है , लोग जीने नहीं देते किसी को अपने आप के साथ खुश होकर भी। उनकी अपनी कीमत घटती है या कोई कीमत नहीं रह जाती है। नासमझ होने पर भी इतना तो समझ लेता है कि ये अपनी दुनिया नहीं है और जो अपने ही नहीं न बेगाने ही हैं अजनबी है साथ रहकर भी अनजान हैं उनसे गिला क्या शिकवा कैसा और उम्मीद किस बात की। आखिर में इक शेर अपनी ग़ज़ल से।
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