डराता धर्म उन्माद और दहशत की देशभक्ति - डॉ लोक सेतिया
ये सौ साल पहले होता था ज़मीदार के लठैत या जागीरदार के गुंडे जिस किसी को चाहे मार पीट देते थे। पीड़ित लोग न्याय की गुहार भी अन्यायी के दरबार में लगाने को विवश थे। ऐसे में शासक जैसे कोई पिता शरारत करने वाले बच्चे की शिकायत सुन कर शिकायत करने वाले की तसल्ली की खातिर दिखावे की डांट लगाते थे बदमाश आगे से मत करना। चलो जिसकी पिटाई की उसके साथ गले लगो हाथ मिलाओ दोस्ती कर लो। मगर जब शिकायती चले जाते तो शाबासी मिलती बच्चे को और समझाते कि ये तमाशा करना ज़रूरी है। चिंता मत करो कुछ नहीं बिगड़ने वाला तुम शासक के साथी हो नियम कानून किसी और के लिए हैं। इधर फिर से आज़ाद देश में जनता की चुनी सरकार देश के नियम कानून और संविधान को ताक पर रखकर ऐसा समझने लगी है मानो देश उनकी जागीर है और जो उनको पसंद वही सही जो नहीं पसंद उसको मिटाना है। सत्ताधारी लोग सत्ता के मद में चूर ही नहीं लगते बल्कि पागलपन का शिकार होकर मनमानी करने लगे हैं। भीड़ बनकर किसी को भी किसी आरोप की बात पर ज़ालिमाना इंसाफ करते हैं मार देते हैं। उनका ऐसा हौंसला आता वहीं से है जहां सत्ता के गलियारे से अपराधी सोच के नेता धर्म के नाम पर नफरत की बातें करते हैं और देश की एकता अखंडता को तार तार करते हैं। आपको डरना चाहिए क्योंकि आप शासित हैं जनता हैं और जिनको अपने चुना था वो आपसे वोटों की भीख मांगने वाले जीत कर सेवक नहीं राजा मानते हैं खुद को।
क्या आपको हम सभी को उनकी वास्तविकता इतने सालों तक समझ नहीं आई। हर अत्याचारी अपना गुणगान चाहता है अपने अपराधी लोगों को संसद में बिठाया है तो उनसे शराफत की उम्मीद तो मत करो। कसूर हमारा है हमने बिना सोचे समझे अनपढ़ ज़ाहिल गंवार किस्म के आपराधिक छवि के लोगों को राजनीति से बाहर करने की जगह सबसे ऊपर स्थापित कर अपने ही कत्ल का सामान किया है। इस देश में दो तरह से कानून लागू होते रहे हैं , राजनेताओं धनवान लोगों जाने माने शोहरत हासिल वर्ग और सरकारी अधिकारी लोगों के लिए नियम कानून फुटबॉल की तरह हैं उनकी ठोकर पर मगर आम नागरिक की खातिर कदम कदम पर तलवार बनकर घात लगाए खड़े हुए अवसर मिलते ही अपना काम बेरहमी और बेदर्दी से करते हैं। जो लोग भलाई देशसेवा और ईमानदारी की सोच रखते हैं उनकी जगह कहीं भी नहीं है राजनीति उनको अपनाती नहीं और समाज ऐसे लोगों की बात सुनता नहीं है। जो शोर मचाता है जिसका परचम लहराता है उसी की जय जयकार करती भीड़ बिना विचारे ज़ालिम को मसीहा कहने लगती है। कायरता और स्वार्थ ने सब को नपुंसक बनकर जीने का आदी बना दिया है। सच के साथ खड़े होना तो दूर हम सच से घबराते हैं अपनी ज़ुबान पर चुप का ताला लगा लेते हैं।
क्या इसको आज़ाद देश कहते हैं जिस में गुनहगार स्वभाव के लोग मनमाने ढंग से मनमानी करते हैं और हम दहशत के साये में जीते हैं मुजरिम बनकर सहमे हुए निरापराध लोग। जब ऐसी घटनाएं घटने लगती हैं और उनको बढ़ावा मिलता है अंकुश नहीं लगाया जाता तब सरकार नाम का कुछ नहीं होता है सरकार के नाम पर दिखावे को कुछ किया जाता है पर्दे के पीछे से गंदा खेल राजनीति जारी रखती है। आवारा भीड़ के खतरे सब जानते हैं भीड़ का न्याय ज़ुल्म की हद होता है इंसाफ के नाम पर। अवल तो मुजरिम ऐसे कर्म करने के बाद पकड़े नहीं जाते हैं पुलिस रपट दर्ज करती है कुछ लोगों के नाम पर बिना कोई नाम की पहचान किये ही। जिनको सबने सामने देखा है पुलिस उनको खोज नहीं सकती क्योंकि खोजने की चाह नहीं है और पुलिस न्यायपालिका कार्यपालिका सब संविधान और कर्तव्य को भुलाकर सत्ताधारी के आदेश का पालन करने लगते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए क्या ये कहना गुनाह है अगर नहीं है तो याद कर लो इसी बात कहने की आड़ लेकर 1975 मैं जेपी के भाषण की बात लेकर इमरजेंसी लगाई गई थी और फिर 19 महीने सत्ता की मनमानी चलती रही। विडंबना की बात है और खेद की भी कि जो तब आपात्काल को काला अध्याय इतिहास का बताते थे वही आज उस से आगे बढ़कर बिना आपात्काल की घोषणा के उसी तरीके से चल रहे हैं विरोध करने वालों को जेल में बंद नहीं सरेआम कत्ल करवाने की बात होने लगी है। सरकार अगर अराजकता को रोकने का काम नहीं करती है लोग सरकार पर भरोसा खो देते हैं तो ऐसी सरकार होने का अधिकार खो देती है। लोहिया जी की बात भूल नहीं जाना कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं। और छल बल से झूठे प्रचार से पैसे और सत्ता के साधन के दुरूपयोग से अपराधी लोगों को साथी बनाकर सरकार बनाई जा सकती है मगर उस पर लोगों का विश्वास नहीं जीता जा सकता है। बातें करने से संविधान की शपथ नहीं पूरी निभती है आपका आचरण लोकतांत्रिक होना और न्याय मिलने का विश्वास जनता को होना पहली शर्त है अन्यथा सत्ता होते भी सरकार का शासन गुंडाराज कहलाता है। आज ऐसी हालत है और देश इक भयानक मोड़ पर खड़ा हुआ है।
क्या आपको हम सभी को उनकी वास्तविकता इतने सालों तक समझ नहीं आई। हर अत्याचारी अपना गुणगान चाहता है अपने अपराधी लोगों को संसद में बिठाया है तो उनसे शराफत की उम्मीद तो मत करो। कसूर हमारा है हमने बिना सोचे समझे अनपढ़ ज़ाहिल गंवार किस्म के आपराधिक छवि के लोगों को राजनीति से बाहर करने की जगह सबसे ऊपर स्थापित कर अपने ही कत्ल का सामान किया है। इस देश में दो तरह से कानून लागू होते रहे हैं , राजनेताओं धनवान लोगों जाने माने शोहरत हासिल वर्ग और सरकारी अधिकारी लोगों के लिए नियम कानून फुटबॉल की तरह हैं उनकी ठोकर पर मगर आम नागरिक की खातिर कदम कदम पर तलवार बनकर घात लगाए खड़े हुए अवसर मिलते ही अपना काम बेरहमी और बेदर्दी से करते हैं। जो लोग भलाई देशसेवा और ईमानदारी की सोच रखते हैं उनकी जगह कहीं भी नहीं है राजनीति उनको अपनाती नहीं और समाज ऐसे लोगों की बात सुनता नहीं है। जो शोर मचाता है जिसका परचम लहराता है उसी की जय जयकार करती भीड़ बिना विचारे ज़ालिम को मसीहा कहने लगती है। कायरता और स्वार्थ ने सब को नपुंसक बनकर जीने का आदी बना दिया है। सच के साथ खड़े होना तो दूर हम सच से घबराते हैं अपनी ज़ुबान पर चुप का ताला लगा लेते हैं।
क्या इसको आज़ाद देश कहते हैं जिस में गुनहगार स्वभाव के लोग मनमाने ढंग से मनमानी करते हैं और हम दहशत के साये में जीते हैं मुजरिम बनकर सहमे हुए निरापराध लोग। जब ऐसी घटनाएं घटने लगती हैं और उनको बढ़ावा मिलता है अंकुश नहीं लगाया जाता तब सरकार नाम का कुछ नहीं होता है सरकार के नाम पर दिखावे को कुछ किया जाता है पर्दे के पीछे से गंदा खेल राजनीति जारी रखती है। आवारा भीड़ के खतरे सब जानते हैं भीड़ का न्याय ज़ुल्म की हद होता है इंसाफ के नाम पर। अवल तो मुजरिम ऐसे कर्म करने के बाद पकड़े नहीं जाते हैं पुलिस रपट दर्ज करती है कुछ लोगों के नाम पर बिना कोई नाम की पहचान किये ही। जिनको सबने सामने देखा है पुलिस उनको खोज नहीं सकती क्योंकि खोजने की चाह नहीं है और पुलिस न्यायपालिका कार्यपालिका सब संविधान और कर्तव्य को भुलाकर सत्ताधारी के आदेश का पालन करने लगते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए क्या ये कहना गुनाह है अगर नहीं है तो याद कर लो इसी बात कहने की आड़ लेकर 1975 मैं जेपी के भाषण की बात लेकर इमरजेंसी लगाई गई थी और फिर 19 महीने सत्ता की मनमानी चलती रही। विडंबना की बात है और खेद की भी कि जो तब आपात्काल को काला अध्याय इतिहास का बताते थे वही आज उस से आगे बढ़कर बिना आपात्काल की घोषणा के उसी तरीके से चल रहे हैं विरोध करने वालों को जेल में बंद नहीं सरेआम कत्ल करवाने की बात होने लगी है। सरकार अगर अराजकता को रोकने का काम नहीं करती है लोग सरकार पर भरोसा खो देते हैं तो ऐसी सरकार होने का अधिकार खो देती है। लोहिया जी की बात भूल नहीं जाना कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं। और छल बल से झूठे प्रचार से पैसे और सत्ता के साधन के दुरूपयोग से अपराधी लोगों को साथी बनाकर सरकार बनाई जा सकती है मगर उस पर लोगों का विश्वास नहीं जीता जा सकता है। बातें करने से संविधान की शपथ नहीं पूरी निभती है आपका आचरण लोकतांत्रिक होना और न्याय मिलने का विश्वास जनता को होना पहली शर्त है अन्यथा सत्ता होते भी सरकार का शासन गुंडाराज कहलाता है। आज ऐसी हालत है और देश इक भयानक मोड़ पर खड़ा हुआ है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें