मौत की शायरी ज़िंदगी की कविता ( तिरछी चाल ) डॉ लोक सेतिया
उन्होंने तय कर दिया है विषय अब सबको इस पर बात करनी होगी । हम अपनी मौत का सामान ले चले । की उसने मेरे कत्ल के बाद कत्ल से तौबा । ज़िंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जाहपनाह , कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं जानता । हम सब तो रंगमच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है । हाहाहाहाहा बाबू मोशाय । ये फ़िल्मी डायलॉग लिखने पड़े शुरुआत करने को भूमिका बनानी है । मौत तू इक कविता है , मुझसे वादा है इक कविता का मिलेगी मुझको । ग़ालिब को कैसे भूल सकते हैं । मौत का एक दिन मुआयन है नींद क्यों रात भर नहीं आती । तेरे वादे पे सितमगर अभी और सब्र करते अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ऐतबार होता । असली मुकदमा किसी और के कत्ल होने का है , कितने साल हो गए फैसला अटका पड़ा है । कत्ल हुआ या किया गया कैसे साबित हो जब अभी लाश भी बरामद नहीं हुई है लोकतंत्र की । वो कब ज़िंदा था कोई गवाह भी नहीं मिलता गवाही देने को कि हां मैंने देखा था उसे भला चंगा था । अधमरा तो बहुत लोगों ने बताया कि देखा था मगर लगता था मरने को है । कोई कहता है ख़ुदकुशी की होगी सब तो आशिक़ हैं भला कौन कत्ल करेगा लोकतंत्र को । हम पुजारी हैं सभी नेता सब दल वाले , उसी की रोटी खाते हैं वही रोज़गार है हम उसे कैसे मरने देंगे । जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते । दुश्मन ए जां हैं । चलो बीच में मैं अपनी कुछ रचनाएं भी शामिल कर लेता हूं , मौका है दस्तूर भी है ।
उन्हें कैसे जीना , हमें कैसे मरना।
उन्हें कैसे जीना , हमें कैसे मरना ,
ये मर्ज़ी है उनकी , हमें क्या है करना।
सियासत हमेशा यही चाहती है ,
ज़रूरी सभी हुक्मरानों से डरना।
उन्हें झूठ कहना , तुम्हें सच समझना ,
कहो सच अगर तो है उनको अखरना।
किनारे भी उनके है पतवार उनकी ,
हमें डूबने को भंवर में उतरना।
भला प्यास सत्ता की बुझती कहीं है ,
लहू है हमारा उन्हें जाम भरना।
कहीं दोस्त दुश्मन खड़े साथ हों , तुम ,
नहीं भूलकर भी उधर से गुज़रना।
सभी लोग हैरान ये देख " तनहा "
हसीनों से बढ़कर है उनका संवरना।
मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे।
मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे ,मौत दे मुझको मगर ऐसी सज़ा न दे।
उम्र भर चलता रहा हूं शोलों पे मैं ,
न बुझा इनको ,मगर अब तू हवा न दे।
जो सरे आम बिके नीलाम हो कभी ,
सोने चांदी से तुले ऐसी वफ़ा न दे।
आ न पाऊंगा यूं तो तिरे करीब मैं ,
मुझको तूं इतनी बुलंदी से सदा न दे।
दामन अपना तू कांटों से बचा के चल ,
और फूलों को कोई शिकवा गिला न दे।
किस तरह तुझ को सुनाऊं दास्ताने ग़म ,
डरता हूं मैं ये कहीं तुझको रुला न दे।
ज़िंदगी हमसे रहेगी तब तलक खफा ,
जब तलक मौत हमें आकर सुला न दे।
ख़ुदकुशी आज कर गया कोई।
ख़ुदकुशी आज कर गया कोई ,
ज़िंदगी तुझ से डर गया कोई।
तेज़ झोंकों में रेत के घर सा ,
ग़म का मारा बिखर गया कोई।
न मिला कोई दर तो मज़बूरन ,
मौत के द्वार पर गया कोई।
खूब उजाड़ा ज़माने भर ने मगर ,
फिर से खुद ही संवर गया कोई।
ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है ,
उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई।
और गहराई शाम ए तन्हाई ,
मुझको तनहा यूँ कर गया कोई।
है कोई अपनी कब्र खुद ही "लोक" ,
जीते जी कब से मर गया कोई।
ज़िंदगी तुझ से डर गया कोई।
तेज़ झोंकों में रेत के घर सा ,
ग़म का मारा बिखर गया कोई।
न मिला कोई दर तो मज़बूरन ,
मौत के द्वार पर गया कोई।
खूब उजाड़ा ज़माने भर ने मगर ,
फिर से खुद ही संवर गया कोई।
ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है ,
उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई।
और गहराई शाम ए तन्हाई ,
मुझको तनहा यूँ कर गया कोई।
है कोई अपनी कब्र खुद ही "लोक" ,
जीते जी कब से मर गया कोई।
जश्न यारो मेरे मरने का मनाया जाये।
जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये ,
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।
इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।
वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।
मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।
दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।
जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।
इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।
वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।
मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।
दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।
जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।
लोग क्या क्या नहीं कहते हैं । कोई कहता है देश की वास्तविकता से ध्यान भटकाना है । रोज़ कोई नया विषय देते हैं आज इस पर बात होगी , बेखबर आज की बड़ी खबर है क्या आपको इसकी खबर है । नोटबंदी को आप असफल बताओ उनकी सफलता है असफलता में भी । कालिख धुल गई सब काला धन सफ़ेद हो गया कमाल है कि नहीं । दाग़दार सब गंगा स्नान करते रहे गंगा और मैली हुई तो क्या दाग़ साफ़ हो गए हैं । चेहरे पर एक भी दाग़ नहीं है कोई काला तिल भी नहीं जाकर टीका लगाओ कहीं बुरी नज़र नहीं लगे । सच इस से पहले किसी पीएम को देखा ऐसे सजा संवरा देश ने सत्तर साल में , क्या ये नया इतिहास नहीं रचा गया है । बुलंदी पर जाकर गिरने का डर फिसलने का डर होता ही है । मैं आज तक इस राज़ को नहीं समझ पाया कि जो मौत मांगते हैं उनको मौत नहीं मिलती और जो जीना चाहते हैं मौत उनको धर दबोचती है । झूठ नहीं कहता मुझे वास्तव में लगता है मौत तो बहुत खूबसूरत होगी जो ज़िंदगी की सभी परेशानियों से मुक्ति दिलवा देगी । जब आएगी तो स्वागत करना है , बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते । कल इक खबर थी झूठी या सच्ची नहीं मालूम , कोई 182 साल का है वाराणसी में मौत जिसके घर का पता भूल गई है ।
जब हम यकीन करते हैं कि कौन कब कैसे मरेगा ऊपर वाले की मर्ज़ी है तो बेकार घबराते हैं । गीता की बात समझें तो मौत है ही नहीं आत्मा अमर है और जन्म लेती रहती है । किसी शायर के कुछ लाजवाब शेर अर्ज़ हैं ।
ज़िंदगी की तल्खियां बढ़ गईं इसी से समझ लो , ज़हर बाज़ार में और महंगा हो गया।
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं , और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
ज़िंदगी अब बता कहां जायें , ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।
ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है , दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।
जिस के कारण फसाद होते हैं , उसका कुछ अता पता ही नहीं।
झूठ को सच करे हुए हैं लोग।
( लोक सेतिया "तनहा" )
झूठ को सच करे हुए हैं लोग ,बेज़ुबां कुछ डरे हुए हैं लोग।
नज़र आते हैं चलते फिरते से ,
मन से लेकिन मरे हुए हैं लोग।
उनके चेहरे हसीन हैं लेकिन ,
ज़हर अंदर भरे हुए हैं लोग।
गोलियां दागते हैं सीनों पर ,
बैर सबसे करे हुए हैं लोग।
शिकवा उनको है क्यों ज़माने से ,
खुद ही बिक कर धरे हुए हैं लोग।
जितना उनके करीब जाते हैं ,
उतना हमसे परे हुए हैं लोग।
इक लघुकथा है ज़िंदगी जिसका शीर्षक है । कोई हर बात पर मरने की बात करता था । जब भी उसकी नाकामी पर बात होती जान देने की बात करता था । लोग घबराते किसी बात से निराश होकर अपनी जान ही नहीं गंवा दे । ख़ुदकुशी करना कोई कायरता नहीं है बड़े साहस की बात है , कायरता तो उसे कहते हैं जो ताकत से कमज़ोर को कत्ल किया करते हैं आंतकवादी हों डाकू लुटेरे या फिर लाशों पर वोटों की राजनीति करने वाले । गुनाह की दुनिया की असलियत यही है कि हर पल मौत का साया रहता है सर पर । मगर सब से बड़े कायर वो हैं जो कानून की आड़ में अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल कर किसी को मारते हैं झूठे एनकउंटर के नाम पर । इतिहास में दबी पड़ी हैं ऐसी बहुत कहानियां अगर राज़ खुल जाएं तो धरती पर भगवान कहलाने वालों का क्या होगा । बात निकली तो कहां तलक आई है , खुल गया राज़ तो रुसवाई ही रुसवाई है । आप चुप चाप पी जाओ हलाहल है ये बस यही आखिरी दवाई है ।
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