अगस्त 02, 2018

POST : 861 जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग - 9 डॉ लोक सेतिया

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग - 9 

                                      डॉ लोक सेतिया 

     आज की कहानी पर चर्चा करना बेहद कठिन कार्य है। इस को समझने के लिए कुछ पुरानी कहानियों की बात की जाये तो शायद आसानी होगी। इक फिल्म में अशोक कुमार जो नायक से लेकर हास्य कलाकार और चरित्र अभिनेता तक तमाम तरह के किरदार निभा चुके हैं , एक डॉयलॉग बोलकर वो बात समझा देते हैं जो कहानी के सभी अभिनय करने वाले नहीं समझा पाते। " औरत की पवित्रता को शरीर के दो इंच हिस्से से नहीं आंका जा सकता है , उसके मन आत्मा की पावनता अधिक महत्व रखती है। " ये खेद की बात है हम आज भी अपनी मानसिकता को बदल पाये नहीं न ही बदलना चाहते हैं। धूल का फूल जैसी फिल्म भी और साधना जैसे फिल्म के रौंगटे खड़े करने वाले गीत का भी कोई असर हुआ नहीं। चलो ये दो गीत सुनते हैं। 
 

जिस समाज की दुहाई देते हैं उसी समाज के मुंह पर तमाचा है। और जो संतान नाजायज़ कहलाती है उसका क्या दोष होता है। मुजरिम वो पिता है जो बिन बियाही मां बनाता है किसी को। 


नहीं इतना काफी नहीं है। इक पंजाबी कहानी इस से भी अलग है। इक महिला को बच्चा पैदा होता है जो केवल उसी को  जानकारी होती है कि न लड़का है न ही लड़की। मगर वो इस राज़ को छुपाये रखती है कितनी मुश्किल से कोई नहीं समझ सकता। सब से छुपाकर नहलाने से कपड़े बदलने और दोस्तों के साथ खेलने तक इसका ध्यान रखना कि कोई नहीं जान सके। सामाजिक विवशता से उसकी शादी भी करनी पड़ती है , बेटा पति धर्म निभाने में सक्षम नहीं है इसलिए जिसको बहु बनाकर लायी उसके साथ किसी और से संबंध स्थापित करवा संतान भी पैदा करवा लेती है। बच्चा नहीं समझता क्यों कोई दूसरा आदमी उसकी मां से मिलने आता है। जब जिसको पिता समझता रहा उसकी मौत होती है तब उसकी लाश को नहलाते समय समझता है कि वो पिता बन ही नहीं सकता था। 
 
      बहुत घटनाएं जीवन में होती हैं जिनका पता किसी को नहीं होता सिवा उस के जिसके साथ घटा कुछ भी। इक पति पत्नी बच्चा गोद लेते हैं बिना किसी को बताये मगर बड़े होने पर पढ़ लिख जाने के बाद भी जब उन्हें मालूम होता है कि हम इनकी नहीं किसी और की संतान हैं जो पालन पोषण नहीं कर सकते थे और उन की भलाई और भविष्य के लिए किसी और को सौंप दिया था। किसी को पूरी जानकारी और हालात की वास्तविकता को समझे बिना अपराधी मान लेना गुनाह है मगर हम सभी ऐसा करते हैं। हर किसी को लेकर कोई धारणा बनाते ही नहीं उन पर थोपते भी हैं। विडंबना की बात ये भी है कि हम अपनी गलती मानते भी नहीं और किसी तरह जान भी लें कि हमने गलत समझा तो कोई खेद व्यक्त नहीं करते हैं। 
 
        आज की कहानी यही थी। डीएनए टेस्ट से पता चलता है कि मेरा पिता वास्तविक पिता नहीं है और मां को दोषी समझ कुछ दिन बाद घर छोड़ जाने लगता है। जो वास्तविकता सामने आती है खुद उसी को शर्मसार करने वाली होती है। किसी नाबालिग लड़की से सामूहिक बलात्कार के बाद जो उस लड़की को निर्दोष समझ विवाह ही नहीं करता बल्कि उस हादिसे के कारण जन्म लेने वाले बच्चे को भी बेटा ही मनाकर प्यार लाड दुलार से बड़ा करता है उसी को बीमारी की हालत में छोड़ कर जाने लगता है तब असलियत पता चलती है और उसका मन साफ हो जाता है। मगर तब तक जो दर्शक स्टुडिओ में बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे अब किसी को खेद भी नहीं है कि हम कौन हैं किसी महिला पर लांछन लगाने वाले। दुःख इस बात का है चाहे कितनी कहानियां कविताएं नज़्में ग़ज़लें लिखी जाएं और लोगों को अच्छी भी लगें तब भी उनकी हमारी सोच बदलती नहीं है कभी। सवाल वहीं का वहीं खड़ा है सदियों से।

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