अगस्त 03, 2018

तेरी सुबह कह रही है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

             तेरी सुबह कह रही है  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 


     मैं गरीबों की बात करता हूं अमीरों के साथ करता हूं । तुम रात को दिन समझ लेना मैं दिन में रात करता हूं । मैं आफ़ताब हूं तुम प्यासी धरती हो धूप की मैं बरसात करता हूं । मुझसे सवाल कौन करे मैं सब से सवालात करता हूं । मेरी हर बात झूठी है मैं सच्ची बात करता हूं । हालात मुझसे डरते हैं खुद मैं ऐसे हालात करता हूं । सब मेरी बात करते हैं मैं खुद मन की बात करता हूं । मैं अपने को जनता ही नहीं इस तरह मुलाकात करता हूं । मैंने पाले हुए हैं मगरमच्छ कितने मछलियों को प्यार करता हूं । मैं मैं हूं मैं ही मैं हूं इस की ही बात करता हूं । किताबों से बैर रखता हूं शिक्षा की बात करता हूं । सपना मेरा जब से हुआ सच सपनों के महल में रहता हूं । महल वो किसी और का है हर किसी से कहता फिरता हूं । इस आलीशान महल को अपनी झौपड़ी है सबको कहता हूं । ताज बदलता नहीं कभी बस राज बदलता रहता हूं । अब रोज़ ख्वाब आता है कच्ची दीवार जैसा ढहता हूं । मुझे नींद अब नहीं आती सोते में ऐसा कहता हूं । मुझे हारना नहीं आता हारना भी है यही सच है सच है मैं हारने से डरता हूं । मेरे ख्वाब बहुत ऊंचे हैं मुझको खुदा कहलाता है खुदाई न छीन ले कोई जान जाती है बात से मुकरता हूं । मेरे पास ऐसा जादू है सम्मोहित सभी को करता हूं । फूटेगा या नहीं फूटेगा मेरा घड़ा भरता ही नहीं भरता हूं और भरता हूं । कितना सफर अभी बाकी है दिन रात सफर ही करता हूं ।

       तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फ़साना । हर मोड़ पर लिखा था कोई न इधर जाना , लेकिन अच्छी कोई हिदायत कोई भी नहीं माना । अब कौन किससे पूछे तुम आगे कितना पहुंचे , वो लोग सब पीछे रहे जिनको था साथ लाना । सब दर्द से कराह रहे हैं आह भरना भी मना है , देखना ज़रूरी है तेरा नाच गाना । खो गए हैं जनता के कहीं सवेरे , तेरी रौशनी ने बढ़ा दिए हैं कुछ और भी अंधेरे । साये भी हैं डराते हर शाम कांपती है हर राह डर है घेरे ।  मौसम है सुहाना जो लड़की गा रही है , बादलों को बुला रही है , बिजली भी गिरनी है दिल में सोचती है घबरा रही है । बंद दरवाज़ों को खोलता नहीं कोई कोई अजनबी अकेला और भीड़ आ रही है । भीड़ जुटी हुई तफरीह के लिए जो सामने आया उसी पर कहर ढा रही है । यहां किसी कवि की कविता याद आई है । हर कोई अपने झोले में अपना अपना सच लिए हुए है । भगत सिंह पाश सफदर हाशमी कितनी बार जन्म लेते कोई साथ नहीं चलता है , कलम तो कलम है अपने खून से लिखती है अपनी ही मौत का फरमान ।

         आज़ादी किसी बेबस महिला की तरह बंद है उनकी कैद में जो दावा करते हैं सुरक्षा देने का । झुकना नहीं जानते जो जो भी कट गए हैं , ये लोग कितने अजीब हैं ख़ामोशी से हर ज़ुल्म सह गए हैं । अब कोई नहीं गुनगुनाता उनके गीतों को जो खून बनकर रगों में बह रहे हैं । सरफ़रोशी की तमन्ना किसी के दिल में नहीं बाकी , बाज़ुए कातिल के हौसले बढ़ गए हैं । सब ने समझ लिया है आएगी नहीं सुबह कभी हर किसी के आंगन में , मीनार महलों के रौशनी को रोके हुए बढ़ते जा रहे हैं । दिन भी है रात जैसे और रातों को दिन हैं कहते , हवा चलाने दिया जलाने का दम भर रहे हैं । ये हद है आप को 1975 से 1977 का आपत्काल याद है और उस समय जो कैद रहे उनको पेंशन भी मिलने लगी चालीस साल बाद । जो उसी समय जेल में रहने से ही नेता ही नहीं राज्यों के मुख्यमंत्री तक बने उन्होंने क्या नहीं किया । मगर आज जो बिना आपात्काल घोषित किये डर दहशत ही नहीं बदले की भावना से विरोध की आवाज़ को दबाने को लगे हैं वो क्या है । अगर उसे काला अध्याय समझा जाता है तो ये भी कोई सुनहरी काल कदापि नहीं कहलायेगा ।
         
     
Famous 20 Sher On Fasana - Amar Ujala Kavya - आज का लफ़्ज़:जानें 'फ़साना'  का मतलब और शायरों के अशआर
 

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