कोई कानून नहीं , सब ठीक ठाक है ( स्वास्थ्य की बात )
आलेख - डॉ लोक सेतिया
अख़बार में ये खबर बहुत छोटी सी छपी है , न्यूज़ डायरी एक तरफ बहुत छोटी छोटी खबरें इक साथ देते हैं अख़बार वाले। कोई ध्यान ही नहीं देता , अख़बार वालों को भी ये महत्वपूर्ण नहीं लगती हैं। खबर लिखी है कि अब एक कमरे में नहीं खुलेगी पैथोलॉजी लैब। ये लिखा है कि आप हैरान होंगे कि अभी तक देश में कोई कानून ही नहीं था ठोस इस बारे में। साथ में ये भी जानकारी दी गई है कि स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा पारित , क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट भी कुछ ही राज्यों की सरकार ने लागू किया है जिसे बने कितने साल हो गए हैं। इस से समझ सकते हैं देश की सरकार और राज्यों की सरकारें नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति किस हद तक लापरवाह और गैर ज़िम्मेदार हैं। पिछले दिनों जब हरियाणा में गुड़गांव और दिल्ली में राजधानी में लाखों रूपये के बिल वसूलने की लूट जैसी घटनाओं का शोर मचा तो हरियाणा के बहुत बोलने वाले स्वस्थ्य मंत्री ने क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट लागू करने की बात कही। मगर बाद में अस्पताल वालों के दबाव में जनता के हित दरकिनार कर घोषित किया गया कि पचास बिस्तर वाले अस्पतालों पर एक्ट लागू नहीं होगा। ये शायद हमारे देश के नेता ही कर सकते हैं , कोई कानून किसी पर लागू हो किसी पर नहीं , फिर संविधान की बात कहां है जो सब के साथ समानता और न्याय की बात करता है। यहां इक पुरानी बात याद करना ज़रूरी है , जिस कानून की बात की जा रही है और जिसको अधिकतर राज्यों में लागू नहीं किया है , उस से पहले डॉ रामदास जी ने स्वास्थ्य मंत्री होते इक कड़ा कानून लाने का प्रयास किया था जिस में विश्व स्तर के नियम लागू करने का विचार था ताकि लोगों की जान से खिलवाड़ कोई नहीं कर सके। मगर उनको स्वस्थ्य मंत्री पद से ही हटा दिया गया था। मनमोहन सिंह जी बेशक ईमानदार समझे जाते हैं मगर उन्हीं की सरकार में एक ईमानदार मंत्री को सही दिशा में काम करने पर हटा दिया गया। जब सभी लोग चाहते हैं उन पर कोई नियम कानून लागू नहीं हो और कानून हो तो भी पालन नहीं करना चाहते ये कहकर कि ऐसा संभव नहीं है तब कुछ भी ठीक कैसे हो सकता है।
सब से अधिक विडंबना की बात तो ये है कि सरकारों का सारा समय ध्यान ही अपनी अपनी सहूलियत की राजनीति साधने में और सत्ता विस्तार में रहता है। गरीबी भूख शिक्षा स्वास्थ्य उनके अजेंडे में ही नहीं हैं। नियम कानून बनाने में हम बीस तीस साल पीछे रहते हैं। जैसे अभी अस्पतालों को तो छोड़ दिया गया है मगर लैब पर एक्ट लागू करना चाहते हैं , क्या लैब पचास बिस्तर वाले अस्पताल से अधिक गलतियां कर सकती है। वास्तविकता को नेता सरकार समझते ही नहीं हैं , आजकल अधिकतर टेस्ट टेक्नीशियन या डॉक्टर नहीं करते मशीनों से होते हैं टेस्ट। बेशक लैब में क्वॉलिफाइएड डॉक्टर होने चाहिएं , मगर क्या पचास बिस्तर के अस्पताल में कितने डॉक्टर कितना स्टाफ हो ये ज़रूरी नहीं है। किसी सरकारी नागरिक अस्पताल में पचास बिस्तर होते हैं तो पचास डॉक्टर और दो सौ लोग बाकी नर्स कम्पाउंडर आदि रहते हैं। अगर निजि नर्सिंग होम बीस बिस्तर का है तो एक या दो डॉक्टर से कैसे सही उपचार किया जा सकता है। कोई नियम नहीं है स्टाफ कितना क़्वालिफ़ाइड हो , साथ में अपनी दवा की दुकान और लैब से टेस्ट करवाना और सब में हिस्सा लेना। ये कोई उचित तरीका नहीं है , बहुत अस्पताल बाहर लिखा होता है चौबीस घंटे सेवा की बात मगर वास्तव में कोई डॉक्टर रहता नहीं है हर समय। अधिकतर नर्सिंग होम दावा करते हैं जिन सेवाओं का उनका प्रबंध होता ही नहीं है।
आजकल स्वास्थ्य , शिक्षा दोनों सेवा के नहीं अधिक से अधिक कमाई के कारोबार या धंधे बन गए हैं। सरकार भूल गई है कि ये दोनों बातें सभी की ज़रूरत हैं और आधी आबादी निजि स्कूलों की फीस नहीं भर सकते न ही निजि अस्पतालों के भी बिल भर सकते हैं। लेकिन सरकारी अस्पताल तो किसी सरकार को ज़रूरी लगते ही नहीं कि उनकी ही व्यवस्था सही की जाये। कितना धन बेकार के इश्तिहारों पर सरकारी विभाग बर्बाद करते हैं उसे बंद कर उतना धन स्वस्थ्य और शिक्षा पर लगते तो अच्छा होता। कानून बनाने से पहले ही उसे प्रभावी ढंग से लागू करने की भी इच्छाशक्ति होनी चाहिए और ये भी समझना चाहिए कि हमारे देश में उसे किस तरह संभव किया जा सकता है।
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