गरीबी की भूख से सत्ता की हवस तक ( परेशानियां ) डॉ लोक सेतिया
लगता है जैसे सपना था कोई , आज जेपी जी का जन्म दिन है जिनका सारा जीवन अंदोलन करते गुज़रा । आज़ादी के अंदोलन से गांधी जी के गांधीवादी विचारों की अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पौंछने की बात उस के बाद विनोबा भावे जी के सर्वोदय अंदोलन में साथ देश में बड़े छोटे का अंतर मिटाने को समाजवाद की मशाल जलाये रखना और अंतिम चरण में भ्र्ष्टाचार तानाशाही के ख़िलाफ़ संपूर्ण क्रांति अंदोलन बहुत कुछ लगातार किया और कभी भी कोई सत्ता या किसी अन्य राजनैतिक पद को स्वीकार ही नहीं किया । आज जब देखते हैं राजनेताओं को मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री पद की दौड़ में तमाम सीमाओं को लांघते लोकलाज छोड़ उचित अनुचित पर विचार करना छोड़ अपराधी लुटेरे एवं धर्म के नाम पर जनता को बांटने की सियासत करते तब लगता है जैसे इक पागलपन छाया हुआ है शहर शहर गांव गांव गली गली । कोई भी नेता अथवा किसी धर्म या सामाजिक संस्था से संबंधित जाना जाता व्यक्ति देश की बदहाली पर चिंतित नहीं शायद कोई सोचता ही नहीं कि जैसा समाज मिला है उसको पहले से बेहतर बनाना चाहिए ऐसा मकसद हर सभ्य इंसान का होना चाहिए । लेकिन अगर समाज पहले से खराब होता जा रहा है तब उन सभी को जिनका दायित्व है देश समाज की समस्याओं का समाधान करना , उनको अपनी नाकामी पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है । आज़ादी के 77 साल बाद अगर लोग भूखे हैं शोषण अन्याय अत्याचार के शिकार हैं महिलाएं क्या बच्चियां भी जब सुरक्षित नहीं हैं तो सरकार प्रशासन पुलिस सभी मुजरिम हैं कानून व्यवस्था से लेकर संविधान में बताये सभी को समानता के अधिकार दिलवाने में विफलता के लिए ।
खेद की बात है कि हमने ऐसे लोगों को अपना आदर्श समझ लिया है जो सिर्फ नाम दौलत शोहरत ताकत और सत्ता की हवस के शिकार हैं जिनको अपने लिए इतना चाहिए जितना पौराणिक कथाओं में दैत्य या राक्षस हुआ करते थे । अर्थव्यस्था में अंतर बढ़ता है जब अमीर गरीब से किसी भी तरह से छीनते हैं तब अमीर और अमीर होते जाते हैं गरीब और गरीब होते जाते हैं ये खाई बढ़ती ही जा रही है सरकारी आंकड़े भले कितना चाहें वास्विकता सामने आ जाती है । कल इक उद्योगपति रतन टाटा जी का निधन हुआ तब सभी इस पर चर्चा करते दिखाई दिए कि उन्होंने हमेशा देश समाज को पहले महत्व दिया और सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता देते रहे । आजकल उद्योगपति कारोबारी लोग क्या भगवा धारण कर योग धर्म क्या क्या कारोबार करने वाले स्वार्थी और संवेदनहीन बन गए हैं । राजनेताओं ने चुनाव में लाखों नहीं करोड़ों करोड़ रूपये खर्च नहीं बल्कि बर्बाद किये हैं जो आते भी अनुचित ढंग से हैं और खर्चे भी अनुचित तरीके से चुनाव आयोग की निर्धारित सीमा को पार कर जाते हैं । लोकतंत्र को अपहरण कर लिया गया है पैसे और बाहुबल का उपयोग कर लेकिन न्यायपालिका चुनाव आयोग खामोश हैं क्योंकि वहां बैठे तमाम लोगों को देश समाज से पहले खुद अपनी शान ओ शौकत सुख सुविधाओं की चिंता होती है । न्यायधीश अधिकारी अभिनेता खिलाड़ी धर्म की बात करने वाले तमाम लोग सांसद विधायक बनकर शासक बनने को व्याकुल हैं देश सेवा जनता की सेवा करना उनका मकसद नहीं है उनको जितना मिला है देश समाज से थोड़ा लगता है ।
मुझे पचास साल पहले इक पत्रिका में निरंतर छपता कॉलम याद है जिस में संपादक का कहना था कि आप शिक्षित हैं किसी पद पर हैं नौकरी कारोबार में हैं तो केवल अपने खुद और परिवार का पालन पोषण और घर बनाना इत्यादि आपके सार्थक जीवन को नहीं दर्शाता है । जीवन की सार्थकता तभी है जब आप को अपने समाज से जितना मिला है आपको वापस लौटाना है , कभी कभी हैरानी होती है जब किसी अधिकारी या राजनेता से ये कहने पर जवाब मिलता है कुछ भी समाज से नहीं मिला उनको जो मिला माता पिता से या खुद प्रयास या परिश्रम कर के । तब कहना पड़ता है समाज ने शिक्षा व्यवस्था देश की प्रशासनिक प्रणाली कितना कुछ उपलब्ध करवाया हुआ है तभी आप कुछ कर पाए अन्यथा सिर्फ पैसे से सब नहीं मिलता । विडंबना है कि इतनी छोटी सी बात कोई नहीं समझता कि कितना चाहिए आदमी को आवश्यकता के लिए ।
महात्मा गांधी जयप्रकाश जैसे लोगों को जानते हैं उनके विचार क्या थे कभी सोचा नहीं पढ़ा नहीं जानना चाहा नहीं । तमाम बड़े महान आदर्शों पर चलने वालों का कहना है कि हमारे देश में सभी की ज़रूरत पूरी करने को सब कुछ है लेकिन किसी की हवस पूरी करने को मुमकिन नहीं है । बात कड़वी है मगर सच्ची है कि अधिकांश लोग भूखे बेबस हैं क्योंकि उनके हिस्से का कोई और अथवा कुछ लोगों ने ज़रूरत से अधिक संचय कर समाज को बर्बाद किया है , क्या इस पर गर्व किया जा सकता है सोचना जब कोई अमीरों की सूचि पढ़ना । साहिर ने इक शहनशाह के ताजमहल बनाने पर सवाल खड़ा किया था आजकल तो देश की हालत ऐसी है कि हर शाख पे उल्लू बैठा है , हां उल्लू लक्ष्मी का वाहन कहलाता है । हम सभी देशभक्ति और अपने अपने धर्म संस्कृति की कितनी बातें करते हैं देश प्रेम की भावना सभी में रहती है बस कमी है तो इतनी कि हमने समाज से पाना बहुत चाहा है मिलता भी कितना सभी को है लेकिन समाज को लौटाना भूल जाते हैं । ये बिल्कुल उसी तरह का ऋण है जैसे कोई अपने पूर्वजों का क़र्ज़ चुकाना भूल जाये , भारतमाता से हमको क्या नहीं मिला मगर क्या हमने अपनी भारतमाता की पीड़ा को समझा भी है । शायद नहीं यकीनन हमने समाज के प्रति अपना कर्तव्य भुला दिया है ये कोई किसी को कहता नहीं क्योंकि गुनहगार सभी हैं । जिन्होंने देश को आज़ाद करवाया भविष्य का निर्माण करने को आधार बनाकर सौंपा हमने उनकी आकांक्षाओं को पूर्ण नहीं होने दिया अपने अपने स्वार्थ में अंधे होकर जो करना चाहिए था किया ही नहीं ।
1 टिप्पणी:
जे पी जैसे व्यक्तित्त्व को नमन...सही बात है बिन राजनीतिक पड़ स्वीकार किये बिना जो समाज के लिए योगदान दे वही सच्चा जन नायक कहलाता है। रतन टाटा भी समाज के लिए कार्य करते रहे हैं तभी उनके जाने का दुख सभी को है।
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