अक्टूबर 10, 2024

POST : 1905 आज़ाद हैं मगर आज़ादी नहीं है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      आज़ाद हैं मगर आज़ादी नहीं है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

बस कहने ही को हम आज़ाद हैं लेकिन हमको क्या किसी को भी वास्तविक आज़ादी हासिल हुई नहीं अभी तलक । चुनाव में मतदान करने का अधिकार होना खुद जैसा चाहते हैं प्रतिनिधि चुनना नहीं नहीं है कोई खड़ा ही नहीं जो आदर्श और सच्चाई ईमानदारी की बात करता हो जितने भी उम्मीदवार खड़े हैं सभी को चुनाव जीतना है सत्ता पाने को देश समाज का कल्याण किसी की प्राथमिकता नहीं है तभी धन बल छल कपट बाहुबल हर उचित अनुचित ढंग अपना कर खोखले वादे झूठी कसमें उठा कर जनमत हथियाना चाहते हैं । आप बेशक नोटा का बटन दबाएं नतीजा बदल नहीं सकते उन्हीं में से कोई एक जीत जाएगा भले नोटा को सबसे अधिक संख्या वोट मिल भी जाएं फिर इस विकल्प का औचित्य क्या हुआ । कितनी बार चर्चा हुई कि जैसे गलती पता चलते ही सुधार का उपाय किया जाता है , निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधि का आचरण सही नहीं होने पर जनता को अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने अर्थात हटाने का अधिकार होना चाहिए । एक बार चुनाव जीत गए तो सांसद विधायक पाला बदलने का रास्ता निकाल लेते हैं कभी पूरा दल ही जिस का विरोध किया उसी से जा मिलता है जनता को पांच साल उनकी मनमानी सहनी पड़ती है तब तक कितना कुछ बदल चुका होता है । जनता द्वारा निर्वाचित सांसद विधायक जब जनभावनाओं को नहीं समझ सत्ता का उपयोग कर जनता पर ही लाठियां गोलियां चलवाने लगते हैं तब संविधान न्यायपालिका निर्रथक साबित हो जाते हैं । 
 
जनता के चुने प्रतिनिधि जब तमाम विशेषाधिकार साधन सुविधाएं पाकर शानदार जीवन जीते हैं तब वो खुद भी अपने विवेक से अपना मत प्रकट करने को स्वतंत्र नहीं होते बल्कि जिस भी राजनीतिक दल में हों उनकी तमाम बातों का समर्थन बिना सोच विचार करने को विवश होते हैं ।  कोई भी राजनीतिक दल अपने सदस्यों को आज़ादी का अधिकार नहीं देता सभी पर इक तलवार लटकी रहती है विरोध करना असहमत होना अनुशासन भंग करना होगा करवाई कठोर संभव है । इतना साहस आजकल किसी में नहीं जो सही को सही कहकर गलत का विरोध कर नैतिकता पर खड़े होने की कीमत चुकाने को तैयार हो । जब हमारे देश की राजनीति खुद ऐसे कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ की कठपुतली बनकर तानाशाही परिवारवाद धर्म संप्रदाय के नाम पर जनता को गुमराह कर होती है तब किसी भी दल में लोकतंत्र नहीं दिखाई देता तब किनसे हम देश में लोकतंत्र और सामन्य नागरिक के अधिकार की अपेक्षा रख सकते हैं । 
 
घठबंधन सरकार की विवशता अलग है पूर्ण बहुमत पाकर भी शासक बनने वाला प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री सिर्फ शपथ उठाता है सभी के प्रति न्याय और निष्पक्षता की लेकिन कुछ देर बाद भाषण देते समय उस संविधान की शपथ और लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जियां उड़ाता है विपक्षी दलों को लेकर टिप्पणियां करते हुए अपने पद की गरिमा को छलनी छलनी करते संकोच नहीं करता है । कभी किसी सरकार की डोर किसी विदेशी सत्ता विश्व बैंक आईएमएफ के पास रहती थी तो आजकल कोई संगठन अपने निर्देश पर देश की सरकार को बंधक समझ जकड़े रहता है । संविधान न्यायपालिका को छोड़ किसी भी अन्य व्यक्ति अथवा संघठन का कोई हस्ताक्षेप स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जबकि उद्योगपतियों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक कितने लोग सरकार की प्राथमिकता और विवशता बने हुए जनता की समस्याओं की अनदेखी कर उनको रेवड़ियां बांटने का कार्य सरकार को करते देख रहे हैं । अजीब सूरत ए हाल है कोई विभाग सरकार के विरोधी को परेशान करने से सत्ताधारी दल को चंदा दिलवाने का कार्य करता है तो कोई सरकार को अपने अनुसार चलाने का प्रयास करता है । संसद की चौखट छोड़ किसी धनवान की चौखट पर राजनेता झुके कोई बात नहीं मगर सरकार से लेकर तमाम अन्य लोग ऐसा करने लगें तो चिंता लोकतंत्र की होना ज़रूरी है । पैसे कहते को भगवान समझना जिनकी आदत है उनसे बचना ज़रूरी है । 
 
 आज़ादी है पूरी आज़ादी है आप झूठ बोलकर क्या नहीं हासिल कर सकते किसी की चाटुकारिता किसी का गुणगान कर मालामाल हो सकते हैं लेकिन सच बोलना चाहते हैं तो अपनी औकात समझ लेना अन्यथा अंजाम कुछ भी हो सकता है । देश की जनता को आज़ादी है चुपचाप अन्याय अत्याचार सहन कर तालियां बजाने की तभी सरकार दानवीर बनकर उसको बेबसी पर गर्व करना सिखलाती है । आज़ादी मिली है कुछ ख़ास तबके के लोगों को राजसी ठाठबाठ से ज़िंदगी जीने को  , बीस- तीस प्रतिशत जो राजनेता हैं सरकारी अधिकारी कर्मचारी हैं धनवान हैं शोहरत वाले अभिनेता खिलाड़ी हैं धर्म समाजसेवा की दुकानें खोले कानून से खेलते रहते हैं मुजरिम साबित होने पर भी सत्ता से जुड़े रहते हैं जैसा करोगे वैसा भरोगे झूठ है कौन कहते हैं । 77 साल बाद हुआ कमाल है विकास विनाश पात पात डाल डाल है ।  ये ऐसी आज़ादी है अपराध करना खेल लगने लगा  आवारा बदमाश लोगों को घर से बाहर निकलते सुरक्षित नहीं कोई भी अनपढ़ गरीब की बेटी है चाहे कोई पढ़ी लिखी समझदार शहज़ादी है । बड़े बड़े महलों में कोई नहीं इंसान रहता नगर नगर भूतों का शानदार बसेरा है ,  गरीब जनता का फुटपाथ भी सुरक्षित नहीं दिन भी उनका अंधेरा है । ध्यान देना यहां ईमानदारी शराफत से जीने का संवैधानिक अधिकार किसी को नहीं , हां लूट धोखाधड़ी मिलावट नशे का असामाजिक कार्य करने की छूट  पुलिस सत्ताधारी राजनेताओं से खुलेआम मिलती है । भ्र्ष्टाचार के दलदल में सभी धंसे हुए हैं आपकी रिहाई की कोशिश कौन करेगा , जब सभी खुद बंधे हुए हाथ हैं तब आपकी बेड़ियां कौन खोलेगा । परवीन शाक़िर जी की ग़ज़ल  से इक शेर है : 
 
पा- ब - गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन ,

दस्त - बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन । 

75 साल बाद भी कई तरह के बंधनों और जकड़नों में क्यों कैद है हमारा भारत! -  Sadbhawna Today
 
 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Bdhiya aalekh rajniti ki kamiyo ko ujagar krta hua...Nota or dal badal ko or powerful bnaya jana chahiye..Dal badalte hi rajneta pr 10 sal ka chunav ladne pr ban hona chahiye