जंज़ीरों में जकड़ी आज़ादी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
गब्बर सिंह कभी ख़त्म नहीं लेते भेस बदलते रहते हैं। हर गब्बर सिंह खुद को मसीहा समझता है या नहीं मगर जतलाता ज़रूर है। समय के साथ बसंती बदलती है वीरू को मना लेती है खुद भी मान जाती है इठलाती बलखाती झूमती गाती है सबका दिल बहलाती है। संसद तक पहुंच जाती है हेलीकॉप्टर से आती जाती है गेंहूं की फसल से वोटों की बालियां काट लाती है। सभी चोर डाकू गब्बर सिंह के गिरोह में शामिल होने को बेताब हैं। हर किसी के सुनहरे ख्वाब हैं। आज़ादी का जश्न मनाना है झंडा फहराना गीत गाना है सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा सुनना सुनाना है। परंपरा को निभाना है हर चुनौती को गले लगाना है। कवि कहता है विनय विश्वास , आवाज़ का मतलब चिल्लाना या मिम्याना नहीं होता है। ख़ामोशी का मतलब सहमत होना सहम जाना नहीं होता है। महिला कवि एकता शबनम की भी कुछ पंक्तियां सुनते हैं। ग़म को जिस पे नाज़ हो ऐसी ख़ुशी रखती हूं मैं , कुछ वजह होगी कि खुद से दुश्मनी रखती हूं मैं। दिल में रहकर दूर है मेरी हुदूदे चाह से , अपने एहसासों में शायद कुछ कमी रखती हूं मैं। गुलशन-ए - हस्ती में पाया गुल से बढ़कर खार को , दुश्मनों से इसलिए दोस्ती रखती हूं मैं।
अदालत पर लोग भरोसा किया करते थे क्योंकि पहले न्याय करने वाले सच को जानने की बात ही नहीं करते थे सच को परखने ढूंढने की भी कोशिश किया करते थे। सरकार बहाने बनाती तो बेबाक पूछते भी थे। जब अदालत खुद मानती है उसे नहीं मालूम किस राज्य में क्या हो रहा है मगर नागरिक के अधिकारों और देश के संविधान की चिंता करने को बताती है कोई जल्दी की बात नहीं है समय लगता है तब इंसाफ क्या होगा क्या होगा कैसे होगा जैसे सवाल मिटा देने पड़ते हैं उसी तरह जैसे सरकारी दफ्तर से गोपनीय दस्तावेज़ खो जाते हैं। आग है धुआं है कि घना अंधकार है गुबार है कोहरा है मत कहो ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। धुंध छंटने तक घरों में कैद जंज़ीरों में जकड़ी आज़ादी का जश्न मनाना होगा। आपको देशभक्त कहलाना होगा कैमरा देख कर मुस्कुराना होगा।
आरक्षण की व्यवस्था की गई थी सदियों तक दलित शोषित वर्ग को बराबरी पर लाने को। मगर स्वार्थ की अंधी राजनीति ने इसको किसी दावानल की आग की तरह बना दिया है। शिक्षा पाने को नौकरी पाने को कुछ समय तक छोटी जाति समझे गए लोगों को अवसर देने इसकी ज़रूरत थी मगर समय सीमा बढ़ाते बढ़ाते और पदोन्नति से लेकर राजनीति तक में काबलियत से अधिक महत्व स्वार्थ को देने से ये कोई लाईलाज रोग बन गया है। अब आरक्षण केवल दलित को नहीं अन्य भी अघोषित आरक्षण हासिल किया जाने लगा है। संसद में महिला आरक्षण भले नहीं मिला हो मगर धनवान और बाहुबली लोगों को अवसर मिलना उसी तरह का ही है। राजयसभा को तो धनपशु लोगों का राजनीति के नाम पर जाने क्या करने का स्थान बना दिया गया है। ये हैरानी की बात है कि अपराधी छवि के लोगों को सभी दलों ने शामिल किया है चुनावी जीत को देश हित से अधिक महत्व देकर। कितने काबिल लोग संसद की शोभा और गरिमा बढ़ाया करते थे लेकिन आजकल कैसे कैसे लोग वहां माननीय कहलाते हैं। सरकार ने सब्सिडी की सहायता खुद लोगों को लेना बंद करने की पहल की ताकि जिनको वास्तव में ज़रूरत है उनको मिल सके। फिर आरक्षण को भी जो लोग संपन्न हैं क्यों नहीं छोड़ सकते अपने ही वर्ग के ज़रूरतमंदों को मिल सके इस खातिर। सबसे अधिक गलत असर हर राज्य हर समाज में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनों से नफरत हिंसा और लोगों को विभाजित करने का किया है। आज हालत ये है कि इसको हटाने की बात कोई राजनेता या दल करने का साहस नहीं करता अपने दलीय हित को देशहित से पहले समझते हैं। कम से कम देश की व्यवस्था चलाने वाले संसद विधायक या बड़े पद पर नियुक्त अधिकारी काबिल होने के आधार पर बनने ज़रूरी हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा नहीं है और चुनावी और सत्ता की रणनीति ने सभी जगह आरक्षण और चंदे या बाहुबल की ताकत का गणित साधने का काम किया है। हम कितने देशों से विकास में पिछड़े हैं ऐसी ही गलतियों के कारण और कोई इस गलती को सुधारने की बात नहीं सोचता है।
धारा 370 का असर कुछ लोगों और कश्मीर तक रहा है लेकिन आरक्षण ने देश भर को नुकसान देने का काम किया है। आज महिलाएं शिक्षा खेल सभी जगह अपनी मेहनत और काबलियत तथा विश्वास के बल पर परचम लहरा रही हैं तो राजनीति में ही इसकी ज़रूरत क्यों है। सबसे अधिक विडंबना की बात आरक्षण का लाभ पहले राजनीति करने वाले परिवार की महिलाओं को ही नहीं मिला बल्कि पंचायत आदि में पत्नी या घर की महिला नाम की सदस्य होती हैं और उनकी जगह पुरुष पति या भाई या कोई परिवार का सदस्य उनकी जगह काम और अधिकारों का उपयोग करते हैं। छोटी से छोटी नौकरी पाने को योग्यता निर्धारित है मगर संसद विधायक बनने को कोई योग्यता नहीं बस जीतने को धन और संसाधन चाहिएं। आज़ादी के इतने साल बाद अगर परिवारवाद और बाक़ी सभी स्वार्थ की राजनीति को खत्म करने की बात की जाती है तो क्यों इस को लेकर उलटी गंगा बहती है और हर दल लोगों को आरक्षण देने का वादा कर बहलाता भी है और इस को बढ़ावा देकर असमानता को समानता लाने की राह घोषित करता है जबकि सच ये है कि हर देश काबिल लोगों को अवसर देने से ही प्रगति कर सकता है। देश को समान रूप से विकसित करने को ऐसी सभी दीवारों को हटाना ज़रूरी है। जब बात चली है तो किसी एक की नहीं सबकी समानता की की जाये।
ऐसा कभी नहीं हुआ जब लोग आज़ाद होकर भी सहमें सहमें रहने को विवश हैं। सच कहने की आज़ादी नहीं है क्योंकि सरकार की पसंद का सच ही सच है उसका विरोध देशभक्ति पर शक का कारण बन जाता है। देशभक्त होने को देश की चिंता करनी ज़रूरी नहीं है बस कुछ शब्द रटने हैं ऊंचे स्वर में बार बार दोहराने हैं। फिर बेशक देश के नियम कानून नैतिकता की धज्जियां उड़ाओ कोई कुछ नहीं पूछेगा। देशभक्ति का अर्थ है कुछ स्लोगन कुछ गीत कुछ रंग बिरंगे परिधान को अपनाना। हर कोई बाहर से देशभक्त लगता हैं मन में क्या है कोई नहीं जानता। आधुनिक आज़ादी का यही स्वरूप है। जंज़ीरें हैं जो नज़र नहीं आती मगर आपको बंधन में जकड़े हुए हैं।
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