अगस्त 18, 2019

संविधान बदलते बिना जाने बिना समझे ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  संविधान बदलते बिना जाने बिना समझे ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

       ये बात क्यों किसी ने नहीं सोची अभी तक कि जिनको संसद विधायक बनाते हैं या जिन अधिकारियों  को देश का संविधान लागू भी करना है और उसकी भावना का आदर करते हुए सुरक्षित भी रखना है पहले उनको देश के संविधान की समझ तो हो। हर उम्मीदवार को पहले ये इम्तिहान देना ज़रूरी हो कि संविधान का मकसद क्या क्या है। अन्यथा नहीं लें तो मुझे लगता है जिनको संसद विधानसभाओं में संविधान की अनुपालना करनी है उनकी परीक्षा ली जाये तो अधिकांश को उत्तीर्ण होने लायक अंक भी नहीं मिलेंगे। जिनको पता ही नहीं मतलब क्या है उन्होंने अपनी मनमानी अपनी मर्ज़ी या सुविधा से संविधान में बदलाव तक किया है। जैसे कोई अधिवक्ता अदालत में मुजरिम का जुर्म जानकर भी उसको बचाता है अपनी कमाई की खातिर और न्याय की आंखों में धुल झौंकता है न्याय का पक्ष नहीं अपने कारोबार को देखते हुए। डॉक्टर इंजीनयर या शिक्षक अगर अपनी जानकारी को इस तरह गलत मकसद से उपयोग करते हैं तो अनुचित है तो ये नियम सभी पर लागू होना चाहिए। अब जिन नेताओं को समझ ही नहीं संविधान की उनसे कानून और संविधान की सुरक्षा की उम्मीद बंदर के हाथ तलवार देने का काम जैसा है। क्या यही नहीं होता रहा सत्ताधारी नेताओं ने देश के संविधान को बदलने को उचित अनुचित की चिंता छोड़कर मनमाने ढंग से कोई भी तरीका या रास्ता अपना कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहा है। अब तो संभलना होगा उनको पता भी है उन्हें किस संवेदनशील विषय पर सोच विचार कर निर्णय करना है अपने विवेक का उपयोग करते हुए न कि किसी आलाकमान के आदेश पर देश और संविधान के हित को दरकिनार कर देश विरोधी कार्य करना है। देश संविधान किसी भी राजनैतिक दल या राजनेता से बहुत ऊपर है। कहीं हम नीम हकीम खतरा ए जान जैसा काम तो नहीं करते आये हैं या फिर हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

           ये कुछ उसी तरह है जैसे धार्मिक किताबों को हम पढ़ते नहीं समझते नहीं मगर उनको मानने की बात करते हैं उन की बताई राह चलना नहीं केवल हाथ जोड़ना सर झुकाना जानते हैं। माता पिता गुरु की बात नहीं मानते उनको नासमझ मानते हैं पर लोकलाज दिखावे को पांव छूते हैं हाथ जोड़ नमस्कार करते हैं उनका कहना नहीं मानते हैं। मंदिर कोई भवन नहीं केवल स्थापित मूर्ति नहीं हर धर्म देवी देवता की बताई सच्चाई अच्छाई न्याय की राह पे चलने का भाव रहने से धार्मिक स्थल बनता हैं अन्यथा आडंबर करना है। आज हम देखते हैं धर्म कोई सद्मार्ग दिखाने का नहीं इक कारोबार बन गए हैं भक्त बढ़ रहे हैं धर्म नहीं अधर्म बढ़ता नज़र आता है। हमने वोट मांगने आये नेताओं से कभी पूछा तक नहीं उनको संविधान की कितनी जानकारी है और क्या उनकी सच्ची आस्था है देश के कानून और संविधान में। जो लोग संविधान की धज्जियां उड़ाते हैं हम कैसे उनको संसद विधानसभा भेज सकते हैं।

      अब सवाल उठता है जनमत को लेकर तो सबसे पहली बात ये समझने की है कि हमारी व्यवस्था में कितने विधायक सांसद पचास फीसदी से अधिक मत पाकर विजयी होते हैं। आम तौर पर सरकार को जिस भी दल की हो देश या राज्य में हुए मतदान का पचास फीसदी से कम ही हासिल हुआ होता है। लेकिन तब भी अगर कहीं बहुमत किसी को दोषी समझ ले या ऐसा राय बना दी जाये जो किसी को अपराधी मानती हो मगर देश की अदालत और कानून उसको बेगुनाह निर्दोष समझते हैं तो भीड़ का न्याय लागू नहीं किया जा सकता है। देश का संविधान कानून के अनुसार चलता है कबीलाई इंसाफ से हर्गिज़ नहीं।



इक कहानी है पुरानी जिस में कोई घर का रखवाला बन जाता है मगर भीतर मन से डरा हुआ रहता है कहीं उसको मिला सब कोई चुरा नहीं ले जाये। बचाने को घर को हर तरफ आग के शोलों से घेर देता है और सब कुछ घर का जलाकर राख कर देता है। घर पर कब्ज़ा उसका कायम रहता है मगर घर का कुछ भी बचता नहीं है। नफरत की आग ऐसी लगाई है कि हर तरफ सभी उसी आग में खुद भी जलते हुए लगते हैं और बाकी लोगों को भी नफरत के लपेट में लेना चाहते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: