आज़ादी संविधान के पुर्ज़े उड़ाने की ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
बात कुछ ऐसी है जैसे कोई जाकर किसी से फरियाद करे जनाब देखो कोई किसी का गला दबा रहा है। कुछ लोगों की सांस घुटती लगती है उसको रोको आपको अधिकार है। जिन लोगों से मौलिक अधिकार छीने गए उनका दोष कोई नहीं है सरकार को डर नहीं है यकीन है उनको सरकार का कोई काम पसंद नहीं आएगा और वो विरोध करेंगे इसलिए उन पर रोक लगाई है विरोध नहीं करने देने को। क्या यही अदालत थी जो कह रही थी विरोध की आवाज़ बंद नहीं किया जाना चाहिए ये कुकर का सेफ्टी वाल्व है अन्यथा विस्फोट की संभावना हो सकती है। अब यही अदालत कहती है उन लोगों की हालत क्या है हम नहीं जानते मगर सरकार को कुछ समय दिया जाना चाहिए सब सामान्य करने को। उधर सरकार बताती है सब सामन्य है कोई समस्या नहीं है। संगीनों के साये में ये आज़ादी अघोषित आपत्काल लगती है बल्कि उस से बढ़कर क्योंकि बिना घोषणा वही सब किया जा रहा है तब विपक्षी नेताओं को कैद किया गया था अब किसी राज्य की सारी जनता को ही उनके अधिकारों से वंचित किया गया है। मगर ये करने वाले सत्ताधारी नेता और न्यायधीश दोनों को याद नहीं है कि उन्होंने पद लेते समय संविधान की शपथ ली थी और सबको न्याय देने बिना भेदभाव का पक्षपात के न्याय की बात कही थी। इक ग़ज़ल याद आती है।
वो खत के पुर्ज़े उड़ा रहा था , हवाओं का रुख बता रहा था।
कुछ और भी हो गया नुमाया , मैं अपना लिखा मिटा रहा था।
( अदालत अपनी कही बात को भुला रही थी बात और याद आ रही थी।
नुमाया :- अधिक गहरा। )
वो एक दिन इक अजनबी को , मेरी कहानी सुना रहा था।
( यही लोग इमरजेंसी की कहानियां सुनाते हैं अत्याचार की और खुद दोहराते हैं
उसी को उचित कह )
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