सितंबर 09, 2017

ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( उल्टा सीधा ) डॉ लोक सेतिया

   ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( उल्टा सीधा ) डॉ लोक सेतिया 

             ये दौलत भी ले लो , ये शोहरत भी ले लो। भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी। मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन।  वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी। वो नानी की बातों में परियों का डेरा , वो चेहरे की झुर्रियों में सदियों का फेरा। भुलाये नहीं भूल सकता है कोई वो छोटी सी रातें वो लंबी कहानी। जगजीत सिंह भी नहीं हैं , जसपाल भट्टी भी नहीं हैं , लोग भूल भी गए थे नानी की कहानी को। मगर कोई नहीं भूल सका इक सपना जो चार साल पहले उसने देखा था। देश में कहीं है कोई परियों के डेरे जैसी जगह जहां सभी अजूबे सच हैं। बड़े बड़े महल रंगीन शामें रौशन दिन रात और इक ख्वाबों ख्यालों की दुनिया जिसे देख कर कोई विश्वास नहीं करता कि वो सपना ही है या वास्तविकता भी हो सकती है। सब से पहले उस ने सपने को सच करने को इक लाल किला बनाकर उस से भाषण दिया था और सपनों को बेचने का भव्य शोरूम खोला था। लोगों को बताया था नकली पहले बनाये जाते हैं असली बाद में बन जाते हैं। हर इमारत का मॉडल पहले बनाया जाता है फिर उसी तरह की इमारत खड़ी की जाती है। और उसने वादा नहीं किया था , इक सपना दिखलाया था सब अच्छा लाने का , ख्वाबों की दुनिया को ढूंढ लाने का। 
 
          आखिर वो परियों का डेरा मिल ही गया , सब को पता था मगर किसी को भी दिखाई नहीं देता था। अब इक हादसा हुआ और जो सब जानते थे मगर देख कर भी नहीं देखते थे , उसका पता सब को चल गया। बस आजकल उसी का शोर है , उसकी हर छुपी हुई बात तलाश की जा रही है। कभी कभी ख्वाब डरावने भी होते हैं , ये सच्ची बात है , मुझे बचपन में अक्सर इक ख्वाब आता था और मुझे बुखार तक चढ़ जाया करता था। पिता जी ने इक छोटी सी तलवार मुझे दी थी रात को अपने सिरहाने के नीचे रखने को। अब याद नहीं कब वो डरावना ख्वाब आना बंद हुआ। सपनों की इक सतरंगी दुनिया किसी ने कब कैसे बसाई कोई नहीं जानता , मगर उस दुनिया की चमक दमक के पीछे बहुत राज़ दफ़्न थे बादशाहों के महलों की तरह। रंगारंग कार्यकर्मों की ऊंची तान में सिसकियों की आवाज़ सुनाई कहां देती है। आज भी सत्ता को भला अपनी शानो शौकत से अधिक कुछ नज़र आता है , अपनी जय जयकार सुनना सभी चाहते हैं। देश विदेश में सब यही कर रहे हैं। लोक शाही संविधान सब भूल गए हैं , सेवक हैं की बात किसे याद रहती है , मसीहा कहलाना चाहते हैं। हर मसीहा बहुत कुछ छुपाये रहता है , सब से पहले यही सच कि मसीहा मसीहा होता ही नहीं। कोई भी मसीहा गरीबों को कुछ देने को नहीं आता , मसीहा होने की कीमत वसूलता है। भगवान बनाकर लोग बड़ी भूल करते हैं। भगवान का सच यही है , खुद आलिशान घरों में रहता है , सज धज कर सिंघासन पर बिराजता है , सुबह शाम आरती होती है उसकी और मनपसंद व्यंजन का भोग लगाया जाता है। भगवान बना दिया तो उस से सवाल नहीं कर सकते कि किया क्या है ये कैसी दुनिया बनाई है जिस में इतना भेद भाव है। सब को सब बराबर देना था , और भारत भुमि पर तीन चौथाई दौलत दस फीसदी अमीरों की और नब्बे फीसदी इक चौथाई की खातिर लड़ते मरते हैं जीने को हर दिन।  भगवान की ये कैसी सियासत है। 
 
           ताजमहल हो या चीन की दीवार , सब बने गरीबों की लाशों पर ही हैं। परियों के स्वर्ग और जन्नत की हक़ीक़त भी अलग नहीं होगी। इंसान और इंसानियत की बात नहीं और सपने बेचते हैं सुनहरी रंग वाले। सपने छलते हैं और सपनों के पीछे भागने वाले असलियत से बहुत दूर हो जाते हैं। ख्वाबों की दुनिया कितनी भी सुंदर हो जागते ही सामना फिर उसी हक़ीक़त से होता है। आज की हक़ीक़त बड़ी भयानक है और सब अच्छा बनाने वाले आज भी परियों के डेरे के मोहजाल से निकलना नहीं चाहते। उन्हें मालूम नहीं बिना उसके उनकी नैया पार कैसे होगी। ये नशा है जो उतरता नहीं आसानी से , मगर इक सच और भी है। देश की जनता भले और कुछ नहीं कर पाए , बड़े बड़े शासकों के नशे को चकनाचूर करती रही है। होश में आने पर मालूम होता है जिन को हमने नासमझ लोग माना उनको हर बात की समझ थी। अच्छे अच्छों को बुरे दिन दिखलाती रही है ये जनता , जब ज़मानत भी नहीं बची उनकी जो समझते थे वही देश हैं , उन्हीं से देश कायम है।

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