मार्च 20, 2017

POST : 621 खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई
हर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई ।

इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई ।

बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई ।

मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई ।

( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )

अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई ।

सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई ।

लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा
ऐसे  किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई ।   
 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

...मतलूब सब हाकिम...👌👍