परस्तिश की आदत हो गई ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
कल किसी ने प्रधानमंत्री मोदी जी की महिमा का बखान करते हुए उसको मसीहा तक घोषित कर दिया। इतना काफी नहीं था , उसके बाद यह तक लिख डाला अगर ये मसीहा कुछ नहीं कर सकता तो कोई दूसरा मसीहा कभी नहीं आयेगा फिर। बहुत बातें ध्यान में आईं जो शायद इस संदेश भेजने वाले को पता ही नहीं हों। दिन में अठाहर घंटे काम करना और खुद को प्रथम देशसेवक बताना सब से पहले बिना प्रचार या अहंकार अगर किसी ने किया तो वो जवाहर लाल नेहरू जी ने। मैं किसी व्यक्ति का उपासक नहीं हूं , जब नेहरू जी का देहांत हुआ तब मैं मात्र तेरह बरस का छोटा सा बच्चा था। नेहरू जी का जन्म दिन बाल दिवस के रूप में तब भी मनाया जाता था , क्योंकि उनका बच्चों से बेहद प्यार चर्चा में था। ये शायद उसी का असर था कि मैंने पहली कविता नेहरू जी पर लिखी थी। सताइस मई को याद करो चल बसे थे चाचा प्यारे। मगर स्कूल में कार्यक्रम में कई दिन तैयारी करवाने के बाद ठीक समय पर अध्यापक ने मुझे मंच पर जाने से रोक दिया था क्योंकि मैं इक गांव का रहने वाला छात्र पेंट नहीं पायजामा डाल सभास्थल पर चला आया था। आज इक बात सोचता हूं क्या आज किसी के वेशभूषा से पहनावे से भेदभाव किया जाये तो सोशल मीडिया में शोर मच जाता। मेरे मन में वो बात आज तक गहरी से बैठी है जो तब किसी को बताने का साहस तक नहीं कर पाया था। मगर आज बात नेहरू जी और देश की करनी है। शायद यहां ये साफ़ करना ज़रूरी है कि युवक होते मेरी मानसिक परिपक्वता देश समाज और राजनीति को समझना तब शुरू हुआ जब 1975 में इंदिरा गांधी का समय था। और कुछ चाटुकार व्यक्ति पूजक उनको देवी बताने लगे थे। मैं तब से ऐसी राजनीति का विरोधी रहा हूं और नेता ही नहीं कोई खिलाड़ी या अभिनेता भी जब बहुत लोगों को विशेषकर टीवी अख़बार वालों को भगवान लगता है तब मुझे वो इक गुलामी की मानसिकता लगता है। ये सभी अपने अपने मकसद को अपना काम करते हैं निस्वार्थ कुछ भी नहीं , इंसान बन जाना बड़ी बात है भगवान नहीं बन सकते। आपको आज धर्म-ग्रन्थ की परिभाषा बताना शायद सही होगा , देवता वो लोग होते हैं जो अपना सब लोगों में बांटते हैं , और दैत्य वो जो औरों से सब छीन लेना चाहते हैं , राक्षसी स्वभाव आपको सत्ता का साफ दिखाई दे सकता है , हर सत्ताधारी हज़ार लोगों से अधिक खुद चाहता है, उपयोग करता है , तब भी उसकी हवस मिटती नहीं। तीन साल में मुझे मोदी जी की सरकार में जो जो उनका दावा था वो कहीं वास्तव में दिखाई नहीं देता। भ्र्ष्टाचार और जनता से अभद्र व्यवहार आज भी आपको पहले की तरह मिलेगा जाकर देखो कभी सरकारी दफ्तर। ट्विट्टर और व्हाट्सऐप से आपको असिलयत दिखाई नहीं दे सकती है। नेहरू जी की गलतियां आपको पता होंगी जिन में जीप घोटाला और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों पर कठोर करवाई नहीं करने से लेकर कश्मीर समस्या तक की बात है। शायद उनका पंचशील समझौता भी कुछ लोगों को इक गलती लगता है , जो पड़ोसी देशों से किया गया था शांति की खातिर। क्या उनका विचार गलत था कि जो देश आज़ाद हुए हैं उनको देश के विकास पर ध्यान देना चाहिए जंग पर हथियारों पर धन बर्बाद नहीं करना चाहिए। मगर उनके भरोसे को तोड़ा गया चीन द्वारा आक्रमण कर के सीमा पर और 1962 की उस हार ने देश और देश की जनता को बेहद विचलित किया था। उसकी टीस अभी भी बाकी है। आपको मालूम है आज देश जिस दिशा में बढ़ता जा रहा है उसको निर्धारित किस ने किया था। वो नेहरू जी थे जिन्होंने तय किया कि बांध बनाना कारखाने लगाना और समय के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ना है। परमाणु विज्ञान की बात पर आलोचना हुई कि देश की गरीबी मिटाने से पहले परमाणु बंब पर धन खर्च करना कितना उचित है। मगर वो चाहते थे दोनों काम साथ साथ हों , विज्ञान भी आगे बढ़ता रहे और देश की समस्याओं पर योजनाएं भी चलती रहें। उन्होंने कभी नहीं कहा कि उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने देश की आज़ादी में अपना सब दे दिया था , जैसे आजकल लोग कुछ किये बिना घोषणा करते हैं हमारा जीवन देश को समर्पित है। जब कि उनका ध्येय सत्ता का विस्तार और खुद को एक मात्र देशभक्त कहलाना है। मोदी राज में स्वच्छता अभियान से लेकर हर योजना प्रचार में ही दिखाई देती है , जनता का धन खर्च कर विज्ञापनों पर , धरातल में कहीं नहीं। गंदगी हर जगह है और व्यक्तिवाद की परकाष्ठा है जब हर राज्य में मुख्यमंत्री विधायक नहीं दो चार लोग मनोनित करते हैं। मोदी जी में बहुत कुछ अच्छा होगा मगर लोकतंत्र के प्रति आदर कदापि नहीं है। बस संसद की चौखट पर माथा टेकना काफी नहीं , जब आपको संसद को जवाब देना था आप जनसभा में भाषण देकर लोकतांत्रिक मर्यादा की खिल्ली उड़ाते रहे। आपको खतरा है जान का , इतनी सुरक्षा में ऐसा कहना क्या जनता को बरगलाना है , नेहरू जी के साथ इक सिपाही मात्र डंडा लिए होता था और वो पैदल टहलते हुए अपने ग्रह मंत्री के घर किसी समस्या पर बात करने चले जाते थे। किसी नेता को प्यार मिलना और विश्वास हासिल होना बड़ी बात है , सत्ता पर रहते जयजयकार होना बड़ी बात नहीं होती। इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता कि भारत में लोकतंत्र की नींव मज़बूत करने और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने में नेहरू जी का बहुत योगदान रहा है। परिपक्ष की संख्या बेशक कितनी कम रही हो तब भी विपक्ष की बात को अनसुना कभी नहीं किया जाता था। आज कोई प्रधानमंत्री किसी विपक्षी दल के नेता का इस तरह आदर शायद ही दे सकता हो जैसे नेहरू जी ने अटल बिहारी वाजपेयी जी को लेकर कहा था आप ज़रूर कभी देश के महान नेता कहलाओगे , काश आप हमारे दल में होते। आज के नेता इक दूसरे को नीचा बताने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। बेशक नेहरू इक धनवान परिवार में पैदा हुए और देश के गरीबों की दशा को मुमकिन है ठीक से नहीं समझ सके , मगर उनमें अभिमान या सत्ता का अहंकार रहा हो कभी ऐसा उनके विरोधी भी नहीं कह सके। ये उनकी स्थापित लोकतांत्रिक मर्यादा ही थी कि उन्होंने अपने परिवार से या दल से किसी को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का कोई प्रयास नहीं किया था। शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि जब नेहरू के बाद सांसद अपना नया नेता चुनने को सभा कर रहे थे तब लाल बहादुर शास्त्री जी जब पंहुचे तब उनको कोई खाली कुर्सी नज़र नहीं आई और वो प्रवेशद्वार से नीचे आती सीढ़ियों पर ही बैठ गये थे। जब किसी नेता ने उनके नाम का प्रस्ताव रखा तब सब की नज़रें उनको तलाश करने लगीं और तब किसी ने शास्त्री जी को बताया आप को अगली पंक्ति में जाना है आपका नाम का प्रस्ताव किया गया है। ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी आम परिवार के सदस्य को चुना गया था काबलियत को देखकर , बिना किसी की कृपा के। आजकल जैसे पहले से निर्धारित किया जाता है कि दल के बड़े नेताओं द्वारा तय व्यक्ति के नाम पर विधायक अथवा सांसद केवल मोहर लगाते हैं उसको संविधान और लोकतंत्र का उपहास ही नहीं निरादर कहना होगा। जिन को गलतफहमी है मोदी जी चाय वाले से देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे हैं उनको पता होना चाहिए कि उनको गुजरात का मुख्यमंत्री पद भी बिना जनता द्वरा चुने इक संस्था द्वारा अपना प्रचारक होने के कारण मिला था और जब 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दल का नेता घोषित करना था तब भी वही दोहराया गया। तभी से मीडिया और कुछ सुविधा संम्पन लोग उनके नाम की माला जपने लगे थे बिना ये समझे कि ऐसा करना कितना खतरनाक हो सकता है। यही पहले इंदिरा गांधी के लिए किया गया था और इंदिरा इस इंडिया तक कहने लगे थे चाटुकार लोग ठीक इसी तरह जैसे आज मोदी मोदी रट रहे हैं। अभी तक जो समझ आता है वो इंदिरा गांधी की ही तरह लगता है। खुद को देश में गरीबों की मसीहा ही नहीं चौगम और गुट-निरपेक्ष देशों की सब से बड़ी नेता कहलाने की महत्वाकांक्षा में तमाम आयोजन विश्व बैंक और आई एम एफ से कर्ज़ लेकर करवाना। सत्ता और जब अंकुशरहित पूर्ण सत्ता मिलती है तब शासक के विस्तारवादी होने की चाहत होना इक खतरा होता है। शायद मोदी जी उसी दिशा में अग्रसर हैं। मगर विडंबना देखिये जिन लोगों ने मोदी जी को आगे बढ़ाया मोदी जी को कोई भी उनमें अपने से ऊंचा नहीं लगा तभी उनको , महात्मा गांधी और सरदार पटेल की प्रतिमाओं को स्थापित करना पड़ा, उधार लेकर । ये महान लोग किसी दल के नहीं देश के होते हैं , मगर इनको अपने स्वार्थ की राजनीति में उपयोग करना उचित नहीं। नेहरू जी को मोदी कभी उस तरह सामने नहीं लाना चाहेंगे क्योंकि ऐसा उनकी राजनीति और एकछत्र शासन की महत्वाकांक्षा के हित के बीच आता है। ये भी इक विसंगति है एक धोती में सादगी से रहने वाले गांधी की बात करने वाला क्या शान से सज धज कर रहता है 15 एकड़ के बंगले में और सत्ता मिलते ही करोड़ रूपये की चंदन की लकड़ी किसी मंदिर में सरकारी ख़ज़ाने से दान देता है। जो लोग नेहरू जी की विलासिता की बात करते हैं कि उनके कपड़े विलायत से ड्रायक्लीन होकर आते थे उनको पता होना चाहिए ऐसा उनकी निजि आमदनी से हुआ था देश के ख़ज़ाने से नहीं। इक और घटना शायद नेहरू के व्यक्तित्व को और साफ करती है , उनके सहायक रहे इक अधिकारी ने लिखा है अपनी किताब में कि जब वो साक्षात्कार देने गये तब खुद नेहरू जी उठकर पहले दरवाज़ा खोला अंदर आने को फिर साक्षात्कार के बाद दोबारा शिष्टाचार निभाने दरवाज़े तक छोड़ने आये थे। देश की सब से बड़ी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति इस तरह विनम्र हो सकता है , ये तब वास्तव में था। आज कहना पड़ता है हम को जीत मिली है तो विनम्र होना चाहिए , ऐसी विनम्रता खुद आप में अभी तलक मुझे तो नज़र नहीं आई मोदी जी। मैं किसी दल का समर्थक नहीं , विरोधी नहीं। मगर किसी को खुदा या फरिश्ता नहीं मानता। नेता लोग देवता नहीं होते फिर दोहराता हूं। इक शेर बशीर बद्र जी का।
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा ,
इतना मत चाहो उसे , वो बेवफ़ा हो जायेगा।
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