अकेले चलना है अपने सफर में ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
मैं क्या करूं , किधर जाऊं , सब खुदा बने हुए हैं , आदमी कोई है ही नहीं जिस से कोई बात कहूं। ये शहर इशारों का शहर है , मुझे इक मित्र की ग़ज़ल का इक शेर याद आता है। दिन भर भटकता ही रहा कोई बात तो करे , मुझको थी क्या खबर ये इशारों का शहर है। इशारे गूंगे लोगों की भाषा होती है , मैं बोलता हूं , बोल सकता हूं , मैंने सीखी ही नहीं ऐसी भाषा। इशारों इशारों में दिल लेने वाले बता ये हुनर तूने सीखा कहां से। महफ़िल में चला जाता हूं भूले से कभी कभी , नहीं समझता तौर तरीके आजकल की दुनिया के। सब दावा करते हैं कोई उनका आदर्श है वही उसके अनुयायी हैं भक्त हैं। और अपना कॉपी राईट चाहते उस नाम पर अपनी दुकान चलाने को। देश धर्म क्या पशु पक्षी तक सब को बांट दिया है। जिसे देखो वही पहाड़ पर चढ़ना चाहता है , ये सोचता है कि ऊंचाई पर खड़ा होने से उसका कद बड़ा हो जायेगा। कोई नहीं समझता कि पहाड़ पर चढ़ बौना आदमी और बौना दिखाई देता है। मुझे पहाड़ पर चढ़ने का शौक नहीं है , ज़मीन पे रहना चाहता , पहाड़ों से फिसलते देखा है अक्सर लोगों को। ये और बात है कि लोग रसातल में गिरने को भी मानते हैं आकाश को पा लिया है। कथनी और करनी में ऐसा विरोधभास देख मुझे घबराहट होती है। जो खुद अपने आप को नहीं पहचानते वो कहते हैं आपको भगवान से मिलवा देंगें। मैं बड़ा कहलाना चाहता हूं चाहना खुद अपने आप को छोटा बनाता है। विडंबना है लोग पल भर में अपनी सोच बदल लेते हैं , जो नहीं करना कभी कहते , अगले ही पल वही करते नज़र आते हैं। चेहरा कुछ है मुखौटा कोई और लगा रखा है। ऐसी झूठी नकली दुनिया में कोई किस तरह जी सकता है। मुझे हर बार यही समझ आया है ऐसे लोगों के बीच रहने से कहीं अच्छा है , अकेले रहना। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।
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