बोलना भी है मना ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
बोलना मना नहीं है मगर आपको वही कहना होगा जो हम चाहते सुनना। किस्से अलग अलग हैं एक ही समय की बातें हैं और सभी मतलब एक जैसा ही नहीं एक समान ही है। घर से शहर के सरकारी दफ्तर से शुरू हुई बात राज्य की राजधानी होती हुई देश की सरकार तलक जा पहुंचती है। जिस बात पर मुझ को लताड़ मिलती है , और कोई काम नहीं आपको सरकार और प्रशासन की कमियां ढूंढते रहते हैं , वही बात जब टीवी पर कोई कहता है तो पसंद की जाती है। पूछ लिया ये वही बात तो है , जैसा मैं कह रहा था , जवाब मिलता है उनकी बात और है वो चर्चित लेखक नाम शोहरत दौलत और देश भर में पहचान है। तुम कहां वो कहां। मुझे मेरी औकात समझा रहे हैं , अब समझा बात सही या गलत अथवा उचित अनुचित की नहीं है। छोटा मुंह बड़ी बात का मामला है। पहले अपना कद अपना रुतबा ऊंचा करूं तब बड़े लोगों की वास्तविकता पर बोल सकता हूं। बोलना मना है।
महिला दिवस पर शहर के प्रशासनिक अधिकारी सब काम छोड़ ऑफिस में एक साथ बैठे टीवी पर उस सभा का सीधा प्रसारण देख रहे हैं जिस में दूसरे राज्य के इक नगर में प्रधानमंत्री जी को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर भाषण देना है। यही सब से ज़रूरी काम है बाकी प्रशासनिक कर्तव्य अनावश्यक हैं। उसी आयोजन में भाग लेने ज़िले के एक बड़े अधिकारी गये हुए हैं साथ इक महिला ज़िले के इक गांव की सरपंच कार्यक्रम में व्याख्यान देने गई हुई हैं। सीधा प्रसारण हो रहा है , अचानक इक महिला अपना विरोध जताना चाहती है प्रधानमंत्री जी को मिलकर बताना चाहती है कि उनका पी एम ओ बार बार निवेदन करने पर भी उसके गांव की समस्या सुन नहीं रहा है। मगर उस महिला को महिला दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में महिला दिवस के दिन बलपूर्वक सुरक्षाकर्मी बाहर निकाल देते हैं। इक प्रधानमंत्री जो खुद को जनता का सेवक बताता है भूल जाता है उसने शपथ ली थी सब से न्याय की और सब के मौलिक अधिकारों की रक्षा की। देश भर के मीडिया वाले इस आपराधिक तमाशे को ख़ामोशी से देखते हैं , बस हंगामे की तस्वीर लेते हैं। कोई सवाल नहीं करता अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता का , न ही याद दिलाता है प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा आये दिन सोशल मीडिया पर अपने अच्छे कामों का बखान करते रहने का , ऐसा सच छुपाया जाता है कोई नहीं जान पाता। सच बोलना मना जो है।
एक और भी पक्ष है जिसको तथाकथित स्वतंत्र मीडिया न खुद देखना चाहता है न किसी को दिखाना चाहता है। सरकारी विज्ञापनों की हड्डी मिलती रहती है जुबां सिल जाती हैं आंखें मोतियाबिंद की शिकार हो जाती हैं। काश आज कोई इनको पत्रकारिता का पहला सबक फिर से पढ़वा याद करवाये , जिस में समाचार की परिभाषा लिखी हुई है जो भूल गये हैं सब पत्रकार। खबर वो सूचना है जिसे कोई छुपा रहा जनता से और पत्रकार को उसका पता लगाकर खोजकर जन जन तक पहुंचना है। पीत-पत्रकारिता किसे कहते हैं ये भी समझना होगा , क्या मीडिया पीलियाग्रस्त है आज , सोचना होगा। खबर क्या है , जो सामने है शहर की गली गली गंदगी आवारा पशु हर सड़क पर और झुग्गी झौपड़ी वालों की मज़बूरी खुले में शौच को जाने की , अथवा प्रशासन का झूठा दावा स्वच्छता अभियान और शहर को खुले में शौच और आवारा पशुओं से मुक्त करवा चुके हैं का एलान। इतना ही नहीं बिना किये ही इन सब के लिए किसी बड़े अधिकारी का सम्मानित और पुरस्कृत होना। इक आडंबर एक छल एक धोखा हर योजना के साथ यही खेल। बस इक चलता फिरता शौचालय सड़क किनारे खड़ा कर दिया नाम को , हज़ारों लोग जिन के पास शौचालय नहीं क्या हर दिन कई किलोमीटर चलकर आ सकते हैं बच्चे महिलायें भी। सच सब देखते हैं जानते हैं बोलना मना है।
इधर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर राज्य में सरकार और विपक्ष मिलकर समारोह में शामिल होते हैं। पूर्व में मंत्री रही महिला आज की इक मंत्री महिला पर तंज कसती हैं , आप बोलोगी महिला अधिकार पर जिनके नाम पर सब काम काज उसके पति परमेश्वर देखते हैं। खुद कठपुतली हो पति के हाथ की और महिलाओं को सक्षम बनाने की बात करोगी भी कैसे। तू-तू मैं-मैं की तकरार में महिला खुद महिला को नीचा दिखाती है। ये सच किसी से भी छुपा नहीं है कि राजनीति में महिला प्रवेश करती है तो किसी पुरुष का सहारा लेकर , पति पिता भाई सास ससुर नहीं तो कोई प्रेमी ही सही। यही इतिहास है , राजनीति खुद ऐसी औलाद है जिस को पता ही नहीं उसको पैदा किस ने किया। सत्ता रुपी माता को तो पहचानते हैं सब राजनेता , जिस कर्तव्य रुपी पिता के कारण जन्म हुआ उसका नाम तलक कोई नहीं जानता। सच ही कहा जाता है कि राजनीति और वैश्यावृति दुनिया के दो सब से पुराने धंधे हैं और दोनों में बहुत समानताएं हैं। मगर आज की वैश्या भी खुद को राजनेता से अच्छा मान सकती है खुद अपना जिस्म बेचती है ईमान नहीं। राजनेता खुद अपना ज़मीर ही नहीं बेचते देश तक को बेच सकते हैं। और देश के संविधान की इस्मत को रोज़ तार तार करते हैं , मगर सर्वोच्च अदालत लताड़ लगाये तब भी शर्मिंदा नहीं होते। पिछले पंचायत चुनाव में जब शिक्षा का नियम लागू किया गया तब आज तक सरपंच बनते रहे लोग अपने अनपढ़ पुत्र के लिये आनन फानन में पढ़ी लिखी लड़की ढूंढ उसको बहु बना लाये चुनाव से पहले। गांव में बियाह कर आई नई नवेली बहु को गांव वालों ने अपना सरपंच चुना क्योंकि वही सब से काबिल समझी गई गांव का भला करने को। पंचायत में आरक्षण लागू करने वाली किसी सरकार ने संसद में इसको लागू नहीं किया न ही अपने दल में ही इक तिहाई महिलाओं को खड़ा किया चुनाव में। मगर बिना आरक्षण मांगे सभी दल वालों ने इस बार पांच राज्यों के चुनाव में एक तिहाई से अधिक आपराधिक छवि वाले बाहुबली लोगों को अपना प्रत्याशी बनाया , हत्या बलात्कार , अपहरण के दोषी सब को लोकप्रिय दिखाई दिये जो जीत सकते हैं और उनको बहुमत दिलवा सकते हैं। महिला सशक्तिकरण हो न हो राजनीति में अपराधी काम नहीं होने चाहियें ऐसा सब मानते हैं। अपराध क्या है , गरीब जो भी विवशता में करता गुनाह है , नेता अफ्सर और धनवान वही चोरी अपने को अमीर बनाने को करते हैं तो उसको देश और समाज की सेवा घोषित किया जाता है। न्याय और कानून सब के लिए एक समान कहां हैं। मगर चुप रहो कहीं किसी अदालत की अवमानना नहीं हो। वो अगर लाठियां बरसायें तो कानून है ये , हाथ अगर उसका छुवें आप तो वो दंगा है। राजा नंगा है। बोलना अपराध है , मना है बोलना।
मुझे इक लेखक मित्र का फोन आया कौन कौन शामिल होगा राज्य की राजधानी में साहित्य अकादमी के तीन दिवस के हरियाणा साहित्य संगम नाम के आयोजन के कार्यक्रम में। पूछा कब है , हमें तो जानकारी नहीं है , यूं भी खुद को साहित्यकार का तमग़ा लगाना कभी ज़रूरी समझा ही नहीं। जाने क्या सोचकर थोड़ी देर बाद अकादमी के दफ्तर में फोन किया और जो बात कर रहे थे उनसे इस बारे पूछा। मैं कौन बोल रहा पूछा उन्होंने और कहने लगे आपको निमंत्रित करना कैसे भूल गये निदेशक जी , आप मुझे अपना व्हाट्सऐप नंबर दो अभी भेजता आपको निमंत्रण। मैंने सवाल किया आप जानते हैं मुझे , जवाब मिला आपकी भेजी रचनाओं से मेलबॉक्स भरा हुआ है , क्या कमाल लिखते हैं बेबाक और निडरता पूर्वक। धन्यवाद आपको पसंद आया मेरा लेखन , यही कहना ही था। निमंत्रण भेजने की बात को टाल दिया ये कहकर आपने खुद जब आने का आग्रह किया है तो वही बहुत है निमंत्रण पत्र की औपचारिकता की ज़रूरत नहीं , आना होगा तो बिना निमंत्रण पत्र भी चला आऊंगा। कार्यक्रम उन लेखकों की खातिर हर साल आयोजित किया जाता है जिनको सम्मान या पुरुस्कार देने होते हैं।
मेरे शहर में कई साल पहले इक प्रशासनिक अधिकारी ने अपने समकक्ष इक और राज्य के अधिकारी से मिलकर इक आयोजन किया था। जिस में दो राज्यों की साहित्य अकादमियों का संगम हुआ था मगर उस में वास्तविक ध्येय उन दो अधिकारियों को महान साहित्यकार घोषित किये जाने का हुआ। हम इस राज्य और शहर के लेखक मात्र दर्शक और श्रोता बनकर शामिल हुए। ठीक समय पर मेरे शहर के अधिकारी ने मुझसे पूछा क्या आप को भी मंच पर स्थान चाहिए और अपनी रचनायें सुना सकते हैं। मैंने कहा महोदय आप जानते हैं मेरे साथ कुछ और भी स्थानीय लेखक मित्र हैं , मैं इस तरह अकेला ऐसा नहीं कर सकता , फिर भी आप कहो तो दो और लेखक साथ के शहर
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सत्ता मिलते ही सत्ताधारी नेता अपने चाटुकार लोगों को साहित्य अकादमी , महिला आयोग , मानव अधिकार आयोग , नगर की समितियों आदि सब जगह पर नियुक्त करते हैं। और इस में भेद भाव नहीं करने या निष्पक्षता की ली शपथ कहीं उलझन नहीं बनती है। सत्ता का दुरूपयोग केवल योजनाओं का पैसा अपना घर भरने को उपयोग करना नहीं है। हर मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री विधायक सांसद कल्याण राशि का सच जनता है। अव्यवस्था इस युग की व्यवस्था है। मगर ये बोलने पर सख्त मनाही है।
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