मेरे लिए लिखना कितना ज़रूरी है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
जो दवा के नाम पे ज़हर दे , उसी चारागर की तलाश है।
कल मुझसे सवाल किया किसी ने मैं क्यों बर्बाद करता रहता अपना इतना वक़्त ये बेकार की बातें लिखने पर। मैंने कहा ये मेरा काम है मुझे ख़ुशी मिलती ऐसा कर के बल्कि मैं लाख चाहूं बिना लिखे नहीं जी सकता। टीवी पर खबर आ रही थी सोशल मीडिया के नशे की , लत पड़ गई है लोगों को व्हाट्सएप्प आदि की। मुझे भी उस में शामिल समझते लोग जो सच नहीं है। चालीस साल पहले इक काम शुरू किया था देश समाज की वास्तविकता को उजागर करने का काम करना। वही करता चला आ रहा हूं , माध्यम बदलते रहे हैं। कभी किसी विभाग को खत लिखता था , फिर अख़बार में पाठकों के कालम में चिट्ठियां रोज़ लिखने लगा। कई पाठक लिखते थे अपना नाम छपा पढ़ने को , मैं लिखता था हर दिन इक लड़ाई लड़ने को। रिश्वतखोरी हो या कारोबारी लूट अथवा भगवान के नाम पर ठगी सब लिखा और घर फूंक तमाशा देखा। न जाने कैसे अख़बारों में हिंदी की मैगज़ीनों में व्यंग्य कविता ग़ज़ल कहानी आलेख छपने लगे और सब मुझे लेखक समझने लगे। लोग तो ज़रा छपने पर किताब छपवा साहित्यकार होने का तमगा लगवा लेते हैं , मुझे कभी भी ये उतना महत्वपूर्ण नहीं लगा न ही मुझे समझ आया दो तीन सौ किताबें छपवा खुद ही बांटते रहना वो भी उन को जिनको शायद पढ़ना ज़रूरी ही नहीं लगता। आज सुबह जागते ही कल मुझसे किये सवाल का जवाब मुझे समझ आया और मैं सैर पर जाना छोड़ लिखने बैठ गया। सब को लगता है काम करने का मतलब है आप की कमाई किस से है , अब जब मुझे लिखने से मिलता नहीं कुछ भी आर्थिक लाभ तो इतना समय देना लिखने को अपना समय बर्बाद करना ही तो है। मुझे लगा कि लोग कितना समय भगवान की पूजा पाठ में खर्च करते हैं , कभी मंदिर जाते हैं कभी उपदेश सुनने को जाते हैं , हज़ारों रूपये खर्च कर हरिद्वार मथुरा काशी मक्का मदीना हरिमंदिर साहब दर्शन को जाते हैं। देवी देवताओं की शरण जाते हैं , अपने अपने गुरु की अर्चना करते हैं। क्यों करते हैं वो ये सब काम जब जानते हैं भगवान मिलते नहीं हैं किसी को। मुझे अभी भी याद है मेरी मां जो भजन गाती थी , तुझे भगवान बनाया है भक्तों ने। बस परस्तिश करने से इबादत करने से आरती करने से जो मिलता है सबको वही सुकून मिलता है मुझे लिखने से। और मैंने कभी नहीं समझना चाहा मेरा लेखन कितना अच्छा है या नहीं है , आप कभी सोचते हैं आपकी इबादत कैसी है। क्या जो लाखों करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाते उनकी आस्था बड़ी और जो चंद पैसे डालते दानपेटी में उनकी छोटी है। अब जो भी है और जैसी भी है मेरी इबादत ठीक है , मैं भगवान की पूजा करना उतना ज़रूरी नहीं मानता जितना सच लिखना क्योंकि मुझे हर धर्म में यही लिखा मिला है सत्य ही ईश्वर है। भगवान क्षमा करें मैंने उनकी तुलना लेखन से की है , पर क्या करूं मेरा सच यही है। मैं उन की तरह नहीं जो जिन नेताओं अधिकारीयों को रिश्वतखोर और कामचोर बताते उन्हीं के सामने हाथ जोड़े खड़े मिलते हैं।
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