इश्क़ करना सीख लिया ( उल्टा पुल्टा ) डॉ लोक सेतिया
शायरी भरी पड़ी है इश्क़ की बातों से , बहुत नाम हैं दुनियावी इश्क़ वाले भी रूहानी इश्क़ वाले भी। मीरा को न जाने कितनों ने क्या समझा होगा , राधा नसीब वाली है जो उसके मंदिर बने हैं। किसी ने नहीं सोचा होगा कि अगर राधा नहीं होती राधा तो कृष्ण कनहिया भी नहीं होते। किसी शायर की ग़ज़ल है बंदे को खुदा करता है इश्क़। इश्क़ करने वाले खुदा नहीं होते वो किसी से करते हैं इश्क़ और उसको खुदा बना देते हैं। हर कोई इश्क़ करना चाहता है आज भी मगर जनता नहीं इश्क़ होता क्या है। आज का ये सबक उन्हीं सब की खातिर पढ़ाया जा रहा है जिनको इश्क़ का फ़तूर है। लोग कितने अजीब हैं इश्क़ भी करते हैं और छुपाते भी हैं , आजकल के राजनेता ही देख लो सत्ता देवी के आशिक़ हैं सब के सब। जब भी जिसको मिलती है उसकी सुध बुध खो जाती है , सामने है देख लो ध्यान से। आप भी खुद बनना चाहते वही और जो मजनू बना हुआ उस को पत्थर भी मारते हैं। यही सब से उलटी बात है , अपना अपना इश्क़ इबादत लगता है और कोई और हो आशिक़ तो अदावत करते हैं। आप यही सोच रहे ये कैसा लिखने वाला है इधर उधर की बात करता है सीधी बात करता नहीं खुद अपने इश्क़ की। शीर्षक दे कर भूल ही गया। भटक गया है विषय से , नहीं। घूम फिर का आना उसी पर है , हर कोई यही करता है बात किसी की हो अपने पर ले आते हैं। चलो कौन है जिस से मुझे इश्क़ है अभी बता देता हूं , चालीस साल से उसी की आशिक़ी की है। अपना घर फूंक तमाशा देखता रहता हूं। मेरा इश्क़ मेरा जुनून यही तो है इक पागलपन है लिखते रहना देश समाज की बात , आईना दिखलाना सब को। मैं क्या कर सकता हूं अगर आईने में हर किसी को अपनी असली सूरत दिखाई देती है जो सब को अपनी लगती नहीं , लोग अपने मुखौटे को अपना चेहरा समझते हैं। आईने से मेकअप छुपाए नहीं छुपता , और लोग आईना ही तोड़ देते हैं। हर दिन कितनी बार टूटा हूं फिर भी ज़िंदा हूं खुद मैं भी हैरान हूं। इक शेर है मेरी एक ग़ज़ल का जो सब को पसंद आता तो है समझ आया कि नहीं मुझे नहीं मालूम।
तू कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं ,
मेरी अर्थी को उठाने वाले।
किसी को अपनी शायरी से इश्क़ होता है , किसी को कविता कहानी से , कोई संगीत से इश्क़ करता है , कोई अभिनय से। आशिकी वही है महबूब अपने अपने हैं , मेरी आशिक़ी बस कलम चलाना है , अपनी कलम से इश्क़ है भले कलम जो भी लिखे , ग़ज़ल कविता कहानी व्यंग्य या फिर आज की तरह बेसिर पैर की बात। अभी भी आपको लगता असली बात नहीं बताई , कोई तो आई होगी जीवन में जिस से हुआ होगा मुझे भी इश्क़। लोग मानते हैं कि शायरी करता है तो कोई तो ज़रूर होगी जिस का दर्द छलकता है ग़ज़ल के अशआरों में। है कोई सपनों की रानी जिस से हुई है मुहब्बत , ढूंढता फिरता हूं कभी कहीं तो मिलेगी जो मुझ जैसे सरफिरे से इश्क़ करने को राज़ी होगी। जिस को न सोने के गहने चाहिए होंगे न चांदी की पायल , न कोई कीमती उपहार न कोई फूल गुलाबी। मेरा दामन तो भरा हुआ है कांटों ही से। मेरे गले लगेगी तो खुद अपने जिस्म को घायल ही कर लेगी , इसलिए जब कोई लगती भी है ऐसी जो मुझसे इश्क़ कर सकती है तब मैं उस से फासला रखता हूं। ये ज़रूरी भी है क्योंकि जो दूर से लुभाते हैं उनको पास से देखते हैं तो लगता है सपना बिखर गया है। ऐसा बहुत बार हुआ है कोई कहीं दूर से मुझे अख़बार या मैगज़ीन में पढ़कर मिलने आया और मिलते ही लगा उसे मैं कोई और ही लगा। जो अक्स बनाकर मिलने आते हैं किसी ख़ास व्यक्ति वाला जिस से मिलने की चाहत थी वह आम सा लगता है तो मुमकिन हैं पछताते हैं। क्योंकि मिल कर जाने के बाद वो खत फिर नहीं मिलते मुझे। तभी चाहता हूं अपने चाहने वालों से आमने सामने नहीं मुलाकात हो। क्योंकि मुझे आता नहीं है वही दिखाना बनकर जो आपका चाहने वाला चाहता है। जिस दिन अपनी असलियत को छुपाने लग गया वो मेरा आखिरी दिन होगा , मर जाना और क्या होता है। अमर भी नहीं होने की चाहत , किसी शायर की तरह जो कहता है। " बाद ए फ़नाह फज़ूल है नामो निशां की फ़िक्र , जब हमीं न रहे तो रहेगा मज़ार क्या "। ये भी लोगों की अजीब चाहत है मर कर भी मरना नहीं चाहते , सोचते हैं कोई निशानी छोड़ जाएं ताकि लोग भूल नहीं जाएं। जीने की उतनी फ़िक्र नहीं जितनी मर जाने की चिंता। भाई हमने तो पच्चीस साल पहले लिख दी थी अपनी वसीयत , तैयार हैं मौत आये तो सही। मैंने इक शेर भी कहा है कुछ इस तरह। " मौत तो दरअसल एक सौगात है , हर किसी ने उसे हादिसा कह दिया "।
अश्क़ की दास्तां अधूरी है , किसी आशिक़ की कहानी अंजाम तक कभी पहुंची है। बाकी बहुत बातें हैं अभी याद तो करने दो 66 साल में कौन कौन आया जीवन में। अभी तो मेरी इक ग़ज़ल जो मेरी वसीयत भी है उसका लुत्फ़ उठायें और मुझे चाहे भूल जाना मेरी वसीयत को याद रखना।
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