अब पछताए क्या होत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
अब कुछ नहीं हो सकता , काश बचपन में खाकी निक्कर पहन ली होती तो हम भी सत्ता की गली के निवासी होते। कोई विधायक बना कोई सांसद कोई बड़े आधिकारिक पद पर आसीन हुआ। कितने राज्य के मुख्यमंत्री बन गए और अब देश के राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति भी। बस इतना बहुत है। आप इसको परिवारवाद नहीं बताना बेशक उनका यही परिवार है। इसको सिफारिश भी नहीं समझना क्योंकि ये उनकी मर्ज़ी की बात है। कौन याद करता है संविधानिक मर्यादा की बात। जनता की गलती है इतना बहुमत देना जो दिल्ली की सत्ता हो या राजधानी की देश की सत्ता बिन बौराय नहीं रहता कोई। सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता होती है तो सत्ता की मादकता का खुमार उतरता तभी जब वापस असली ठिकाने लगाए जाते हैं। बहुत को देखा है आकाश से धरती नहीं पाताल तक नीचे आते। मगर कोई इनसे सवाल क्या करेगा जब , मीडिया वाले :-
बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते
सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते।
किस्मत की बात है जो घर से भागे थे बचने को उनको फंसाया है उसी जाल में। चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। ये युग ही योगी के भोगी बन जाने का है। चोर उच्चके भी अब शाखा में जाने लगे हैं , अंधे भी सब को रास्ता दिखलाने लगे हैं। लो गूंगे मधुर स्वर में गाने लगे हैं। और हम आप नाहक शर्माने लगे हैं। चिड़िया खेत चुग गई हम पछताने लगे हैं।
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