हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
हमको ले डूबे ज़माने वालेनाखुदा खुद को बताने वाले।
आज फिर ले के वो बारात चले
अपनी दुल्हन को जलाने वाले।
देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले।
ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले।
हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार
मेरी हस्ती को मिटाने वाले।
एक ही घूंट में मदहोश हुए
होश काबू में बताने वाले।
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले।
ये हैं महलों को बनाने वाले।
काश हालात से होते आगाह
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले।
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले।
तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले।
मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले।
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