जुलाई 26, 2012

POST : 19 हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।
 
आज फिर ले के वो बारात चले 
अपनी दुल्हन को जलाने वाले ।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले । 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले । 
 
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।

काश हालात से होते आगाह 
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले । 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।

तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।

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