अक्टूबर 06, 2014

POST : 457 रसीली ( कहानी , इक वेश्या की ) डा लोक सेतिया ( भाग दो )

      रसीली ( कहानी , इक वेश्या की ) डा लोक सेतिया ( भाग दो )

                        ( अब आगे कहानी का दूसरा और अंतिम भाग )

         वो रसीली ही थी , प्यार के रस से लबालब भरी हुई।  अपना नाम सार्थक करती थी , हमेशा हर किसी से मीठी मीठी बातें करना हंसना खिलखिलाना बचपन से सवभाव था उसका। घर का छोटा बड़ा सदस्य हो , आस पास का कोई चाहे राह से गुज़रता कोई अनजान अजनबी सब से बिना झिझक बात करना हसी मज़ाक करना आदत थी रसीली की। सब का मन मोह लिया करती अपने भोले चेहरे निश्छल व्यवहार और सब के काम में साथ देने से। उसको नहीं पता चला कि कब उसने बचपन से किशोर अवस्था में और फिर जवानी में कदम रखा था। वो अभी भी वैसी ही थी , झूम कर किसी को गले लगा लेना , घुल मिल जाना सभी से बचपन जैसा ही था। घर के लोग चाहते थे उसको समझाना कि वो बच्ची नहीं रही अब और उसको अपने बराबर के युवा लड़कों से थोड़ा दूरी रखनी चाहिये। रसीली नहीं समझ पाई थी कि अपने बचपन के दोस्तों से प्यार से मिलने , बात करने में बुराई क्या है। कोई उसको बिंदास कहता कोई नासमझ कोई बदचलन , मगर रसीली को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वो मानती थी कि जब वो कुछ भी गलत नहीं करती तो कोई क्या सोचता है इससे क्या मतलब। रसीली की सहेलियां भी कहती थी उसको , तुझे लड़कों के साथ अकेले कहीं भी आने जाने में क्या डर नहीं लगता है। वो कहती मेरे अपने दोस्त ही तो हैं भला उनसे किस बात का डर। और तब उस अल्हड़पन की बाली उम्र में ही रसीली कब अपना दिल कमाल को दे बैठी उसको भी पता नहीं चला। एक हरदम खामोश रहने वाला अपने में मस्त खोया रहने वाला कमाल उसके दिल और दिमाग पर छा गया कुछ ही दिन की मुलाकातों में जाने कैसे। कुछ दिन छुट्टियां बिताने आया था पास किसी रिश्तेदार के घर में। जब कमाल को वापस जाना था अपने शहर को तब वो नई दोस्त बनी रसीली को मिलने आया था , बहुत उदास था। रसीली ने कहा था फिर कब आओगे कमाल यहां। वो बेहद निराशा भरे स्वर में बोला था , उसको नहीं मालूम कि अब कभी आ सकेगा भी या नहीं। उसकी इस बात से रसीली को जाने ऐसा क्या हुआ था जो उसने कह दिया था कमाल अगर तुम नहीं आओगे तो मैं जी नहीं सकूंगी तुम्हारे बिना अधिक दिनों तक , मर ही जाऊंगी। और फिर जो कुछ घटा वो कोई सपना ही था , कमाल का रसीली से शादी करने का वादा और रसीली का घर को छोड़ कमाल के साथ जाना उसके शहर में उसके घर।

                                    रसीली को अपने साथ लेकर जब कमाल अपने घर पहुंचा तब वहां हंगामा खड़ा हो गया , जैसे कोई भूचाल आ गया हो। एक चुपचाप हर बात पर जी हां कहने वाले बेटे से ऐसी अपेक्षा नहीं थी परिवार वालों को सपने में भी। कमाल को आदेश दिया गया कि रसीली को लेजाकर उसके घर छोड़ आये। लेकिन कमाल ने अपना घर ही छोड़ दिया था और रसीली का हाथ थाम इक कसम खाई थी कि अब चाहे सारा ज़माना सारी खुदाई भी उन दोनों के खिलाफ हो जाये वो हमेशा इक साथ ही रहेंगे। उन्होंने तय कर लिया था कि अब प्यार ही उनके लिए सब कुछ है , प्यार में जीना प्यार में मरना भी मंज़ूर है। बेशक लोग उनसे नफरत करें वो सब को प्यार का ही सबक सिखायेंगे उम्र भर। शायद किताबों कहानियों की तरह लोग भी बदल जायेंगे और उनसे प्यार करने लगेंगे। मगर किताबों और कहानियों केकिरदार  बदल जाते हैं वास्तविक जीवन में अक्सर ऐसा नहीं होता है। उन दोनों के लिये और विशेषकर रसीली के लिये अपनों की नफरत उसकी मौत भी कम नहीं कर सकी। रसीली को जब कमाल के घर में जगह नहीं मिली तब उसने प्रयास किया था अपने घर वालों से सहारा मिल जाये। रसीली ने अपनी इक सहेली को फोन किया था ताकि वो उसके परिवार वालों से पूछ सके कि अगर वो कमाल को लेकर आये वहां तो क्या उनको सवीकार करेंगे पति पत्नी के रूप में। शाम को सहेली ने बताया था कि जब वो रसीली के घर गई थी तब वो बातें कर रहे थे उन दोनों को तलाश करने और जान से मरने की। इसलिये उसने उनको ये पूछना ही उचित नहीं समझा और यही बताया कि वह तो रसीली से मिलने को आई थी और उसको रसीली की कोई जानकारी नहीं है। सहेली ने समझाया था तुम दोनों कहीं दूर चले जाओ और अपनी दुनिया वहां बसा लो जहां ये ज़ालिम नफरत करने वाले नहीं हों। रसीली और कमाल जैसे सपनों के आकाश से गिर कर दुनिया की पत्थरीली ज़मीन पर आ गये थे और उनको समझ नहीं आ रहा था प्यार करके ऐसा क्या गुनाह किया है उन लोगों ने। पूरा का पूरा समाज ही उनका दुश्मन क्यों बन गया है , क्या कोई जगह नहीं जहां प्यार करने वालों को शरण मिल सके। भटकते रहे बहुत दिन तक इधर उधर मगर नहीं मिली कोई भी जगह उनको रहने को। प्यार करने वाले दिल ज़िंदगी की जंग लड़ते रहे और दो वक़्त पेट भरना भी कठिन हो गया। न रहने को ठिकाना न पास कुछ भी पैसे , उस पर जहां किसी से सहायता मांगते , काम मांगते और कोई ठिकाना , हर जगह शिकारी वहशी दरिंदे ही मिलते। ये देख बहुत घबरा गये दोनों प्रेमी , मगर इक ज़िद ने ज़िंदा रखा कि अपने लिये नहीं अब साथी के लिये जीना है। ज़िंदगी की कशमकश में वे इक दूजे को प्यार करना तो भूल ही गये थे और बात बात पर आपस में उलझने लगे थे। ऐसे में हवस के भूखे भेड़ियों ने उनकी मज़बूरियों का फायदा उठा कर उनको अपनी राह पर चलने को विवश कर दिया था। बहुत जल्द इक प्रेम कहानी पाप कथा बन गई थी। समाज के एक शरीफ कहलाने वाले धनवान व्यक्ति  ने उनको दया करने का झांसा देकर ऐसा फंसाया कि उनको ऐसी बदनाम गलियों में पहुंचा दिया जहां से निकलने की कोई राह ही नहीं होती है। हर दिन पल पल ज़िंदगी की लड़ाई लड़ते लड़ते दोनों तंग आ गये थे और हार मान ली थी , अपने हालत को नियति स्वीकार कर लिया था। और ऐसे में वो दोनों नशे का शिकार हो गये थे। इक समाजसेवक ने शरण देकर उनका शोषण किया बहुत दिन तक , कमाल को कहीं अन्य जगह भेज काम से रसीली के साथ वो खुद और उसके साथी मिल कई दिन तक अनाचार करते रहे , जब ये सब कमाल ने देखा और विरोध किया तो उसको सज़ा दी गई अपाहिज बनाने की , उसको नपुंसक बना दिया गया। ऐसे इक प्रेमी अपनी ही प्रेमिका का सौदा करने वाला इक दलाल बना दिया गया। उनको इक बदनाम बस्ती में पहुंचा दिया कुछ शरीफ कहलाने वाले लोगों ने।

                          रसीली कभी भी बस्ती की बाकी औरतों जैसी नहीं बन पाई , उसका सवभाव तब भी सनेहपूर्ण ही रहा अपने पास आने वालों से प्रेम और अपनेपन से बातें करते उसके पास अपनी हवस मिटाने आये ग्राहक भी उसको चाहने लगते थे। उनको रसीली का जिस्म ही नहीं मिलता था और भी बहुत कुछ मिलता था जो बस्ती की दूसरी किसी औरत से नहीं मिलता था। एक पूरी तहर खुद को समर्पित करने वाली औरत जो उनसे उनके दुःख और परेशानियां भी जानना चाहती थी दोस्त  बन कर और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। ऐसे में वो लोग भी रसीली के पास आकर रहने लगे जिनके पास उसको देने को पैसे नहीं भी होते थे। जीवन से निराश लोगों को अपनाना रसीली और कमाल की आदत बन गई थी , खाली पेट आते कई लोग तब उनको रसीली खुद खाना बना कर खिलाती थी और उनकी प्यास भी बुझाती थी , जिस बस्ती में सब कुछ पैसा हो वहां रसीली यूं रहती थी जैसे पैसे की कोई अहमियत ही नहीं हो। पैसा न होने से किसी को ठुकराया नहीं कभी रसीली ने , रसीली से सब को प्यार ही नहीं मीठे बोल भी मिलते थे और खाने को रोटी के साथ देसी शराब भी। जाने कितने लोग जिनको अपनों ने ठुकरा दिया था उनको रसीली की हमदर्दी ने फिर से जीना सीखा दिया था। प्यार रसीली के अंग अंग में उसके रोम रोम में बेशुमार भरा हुआ था।  हालात ने उसको वैश्या का नाम भले दे दिया था तब भी जिस्म बेचने वाली औरतों की तरह उसने पैसे को अपना सब कुछ नहीं समझा था। सब के प्यार की प्यास मिटा कर अपने और अपने साथी कमाल की पेट की भूख और बाकी ज़रूरतें पूरी करने का काम रसीली ने ऐसे किया उम्र भर जैसे कोई पूजा करता है , इबादत करता हो। वासना का कारोबार नहीं सीखा कभी भी रसीली ने , कमाल और रसीली ने कभी दुनिया वालों से कोई शिकायत नहीं की थी। मगर जब दोनों अकेले होते अपने घर में तब पूछा करते भगवान से ये सवाल कि उनको प्यार करने की ऐसी सज़ा क्यों मिली है। क्यों खुदा अपनी दुनिया में प्यार करने वालों की भी इक दुनिया बनाना भूल गया था।

      पिछले दो दिन से बस्ती गुमसुम सी है , सन्नाटा सा छाया हुआ है बस्ती में। जो बस्ती की औरतें ईर्ष्या किया करती थी रसीली से उनकी भी आंखे नम हैं चेहरे उदास हैं और घर में ग़म की गहरी छाया है। शायद उनको भी ख्याल आ रहा है कि किसी दिन उनका भी यही अंत होना है। पुलिस वाले चाहते थे किसी तरह कोई रसीली की लाश उनसे ले ले अंतिम संस्कार करने के लिये ताकि उनको रसीली का ये घर सील बंद नहीं करना पड़े और वे इसका कब्ज़ा किसी और जिस्म बेचने वाली औरत को देकर कुछ कमाई कर सकें। लगता है पापियों की बात भगवान भी जल्दी सुन लेता है , तभी तो पुलिस वाले अपनी गाड़ी में रसीली की लाश ले जाते उस से पहले ही इक अनजान व्यक्ति रसीली के घर के दरवाज़े पर आकर रुका था रिक्शा से उतरा था। जब उसको मालूम हुआ कि रसीली की मौत हो चुकी है तब वो फफक फफक कर रोने लगा था , पुलिस वालों को उसने बताया था कि जब भी इस शहर में आता है वो तब रसीली के घर ही मेहमान बन कर रुकता है। पिछली कई बार उसने रसीली को एक भी पैसा नहीं दिया था किसी काम के लिये भी , क्योंकि उसके पास थे ही नहीं तब देने को पैसे। आज ढेर सारे पैसे साथ लाया था ये सोचकर कि उसका सारा क़र्ज़ उतार देगा। जब पुलिस वालों ने बताया कि रसीली की देह को लेने को कोई उसका अपना तैयार नहीं है और अब उसका दाह संस्कार लावारिस घोषित कर उनको ही करना है तब उसने पुलिस वालों से पूछा था कि क्या वो उसका अपना बन उसकी लाश को ले जा सकता है ताकि रसीली का अंतिम संस्कार कर सके। पुलिस वाले कब से यही चाहते ही थे , उस व्यक्ति से कुछ कागज़ों पर लिखवा लिया है कि वो रसीली का अपना  है और उसकी लाश ले जाकर क्रियाकर्म करना चाहता है। शमशान भूमि का वाहन आ गया है और वो अकेला रसीली का शव लेकर जा रहा है , बस्ती वालों के साथ पुलिस वालों की भी आँखे नम हैं ये देख कर कि कोई है जो रसीली के प्यार की कीमत समझता है और उसका क़र्ज़ चुकाने आया है , चाहे रसीली की मौत के बाद ही।


   ( रसीली की ये कहानी यहां समाप्त होती है , मगर शायद मैं रसीली की सही छवि अभी भी नहीं बना पाया हूँ। तभी ये वास्तविक कहानी किसी पत्र पत्रिका ने छापना स्वीकार नहीं किया। यहां मुझे इक इंग्लैंड के मनोचिक्सक की याद आती है , उसने ये प्रचार कर रखा था कि जो भी कोई ख़ुदकुशी करना चाहता हो वो मरने से पहले एक बार उसको ज़रूर आकर मिले। लोग आते हर दिन और वो सब को ये मनाने को सफल हो जाता कि उनके पास अभी जीने की वजह है। मगर इक दिन वो ऐसा नहीं कर पाया और उसने इक व्यक्ति को ये कह दिया कि मैं भी आपको नहीं समझा सकता कि आपको क्यों जीना चाहिये। अब उस को मरना ही था ये सोच कर निकला तो उन मनोचिकित्स्क की सहायक जो केबिन के बाहर बैठी ये सब सुन रही थी , ने उसको रोक कर पूछा आप क्या करने जा रहे हो , जब उसने ख़ुदकुशी करने की बात कही तब उस सहायक ने पूछा था क्या आप मेरे साथ चल कर एक कप कॉफी पी सकते हैं मरने से पहले , वो मान गया था। तब थोड़ी ही देर में उसको अपना मित्र बना उस सहायक ने उसका ख़ुदकुशी का इरादा बदलवा दिया था। आज भी उस सहायक के नाम इक संस्था है जो निराश लोगों में जीवन की आशा जगाती है। दिल्ली में भी उसकी एक शाखा है सफदरजंग हवाई अड्डे के पास , बहुत साल पहले उसके लिये काम किया है मैंने। रसीली ने शायद कुछ ऐसा ही किया था उम्र भर। हो सके तो आप भी उसको समझना। )

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