न्यायालय को न्याय करना चाहिए ( सही हल ) डॉ लोक सेतिया
अदालत ने ठीक कहा अदालत इतिहास की गलती को बदल नहीं सकती है मगर सोचने की बात और समझने की बात ये है कि खुद अदालत कोई गलती नहीं कर सकती है। न्याय करने वाले को न्याय करना है तो किसी भी पक्ष की भावना पर नहीं जाना चाहिए और केवल निष्पक्षता से न्याय करना चाहिए। जब अदालत खुद निर्णय नहीं करना चाहती और समझौता करवाने की बात करती है तब दोनों पक्ष भले सहमत हो जाते हैं न्याय की देवी घायल होती है। ये कोई तलाक का मुकदमा नहीं है है कि अपने किसी घर को बचाने को बच्चों की भलाई को देखते हुए पति पत्नी में समझौता करवाना है और उसके लिए जिस किसी ने जितने भी अत्याचार किये सब की माफ़ी मिलनी है। और अगर इतने महत्वपूर्ण मुकदमें पर यही किया जाना है तो इतना विलंब किस कारण किया गया। अगर भगवान और आस्था का सवाल है तो कौन सा भगवान अपने लिए पक्षपाती और भावना को देख कर किया फैसला मंज़ूर करेगा न कि वास्तविक निर्णय विवेकपूर्ण ढंग से। न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी अंधा होने की निशानी नहीं है बल्कि इस की पहचान है कि अपने पराये दोस्त दुश्मन को बिना देखे न्याय देना है। चलो इन दिनों के ही कुछ निर्णय की बात करते हैं और विचार करते हैं क्या उनका निर्णय देते समय भी भावनाओं की बात को महत्व दिया जाता तो क्या होता।
करोड़ों लोगों की भावना को देखते तो राम रहीम और आसाराम को जेल नहीं भेजना था। अगर करोड़ों लोगों की भीड़ को देखना है तो किसी भी राजनेता पर घोटाले का मुकदमा नहीं चलाना चाहिए। आपको न्याय करना नहीं अदालत जारी रखनी है आमजन को सज़ा देने को ही नहीं बेगुनाही को भी जुर्म साबित करने को। सब से पहला सवाल न्यायपालिका पर यही है क्या न्याय हासिल करने को भी कीमत देनी पड़ती है उचित है। जाने कितने गरीब अदालत की चौखट नहीं लांघ सकते क्योंकि वकील करने और मुकदमा करने को क्या पेट भरने को पैसा नहीं है। संविधान की व्याख्या करते हैं न्यायधीश किसी दिन न्याय किसको कहते हैं इसकी भी व्याख्या करने का हौंसला कर दिखाए कोई। करोड़ों मुकदमे लटके हुए हैं मगर कुछ ख़ास लोगों को न्याय पल भर में मिलता है ये कैसा विधान है। आपकी अदालतों ने कितने ही दंगे फसाद करवाने वालों को निर्दोष घोषित किया है यदा कदा किसी को सज़ा सुनाई तो वाह वाह होती है और जितनी गलतियां की सब भूल जाती हैं।
आपको इतिहास नहीं बदलना और न कोई बदल सकता है। किस शासक ने क्या किया कोई गवाही नहीं आपके पास लेकिन खुद आपको इतिहास की भूल को सुधारने की आड़ में ऐसी बड़ी गलती नहीं करनी जो बाद में देश की न्याय व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा कर सवालिया निशान लगाती है। आपको डर लगता है सच को सच बताने में तो साफ कह दें आपके बस की बात नहीं न्याय करना। अपने किसी शायर का वो शेर सुना होगा।
इतिहास ने वो मंज़र भी देखा है , लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई।
राम अगर भगवान हैं तो इनको भी न्याय ही स्वीकार होगा कोई खैरात का समझौता करता फैसला नहीं। अब शायद सभी को अपने नायकों की शिक्षा को याद करना चाहिए। राजा हरीशचंद्र का न्याय भी इक मिसाल रहा है और खुद राम का न्याय भी जो पत्नी का निर्दोष होने पर भी त्याग करते हैं ताकि आम नागरिक का भरोसा कायम रहे न्याय की निष्पक्षता पर। आपकी अदालत क्या आज सीता को न्याय देने की बात करना चाहती है। इन उलझनों में राजनीति जनता को उलझाना जानती है मगर आपको न्याय की कुर्सी केवल न्याय करने की शपथ लेकर मिलती है उस शपथ को और देश की न्यायपालिका की साख को कायम रखना है। जिस न्यायधीश ने इंदिरा गांधी को पद पर रहते अदालत आने पर विवश किया और अभी जिस ने राम रहीम को सज़ा सुनाई उन्हीं से कुछ सीख लेनी अच्छी बात है।
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