मई 12, 2025

POST : 1964 आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

कुछ सालों से ये शब्द किसी अमृतवाणी से अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं , हर शख़्स सही समय का बेसब्री से इंतिज़ार करता है । दिल की धड़कन किसी महबूबा से मिलन की बेला से बढ़कर तेज़ होने लगती हैं । मुझे अभी पता चला ऐलान का , तो सबसे पहला काम समझ आया इस पोस्ट को निर्धारित आठ बजे के वक़्त से पहले पूरा कर पब्लिश करना है ताकि आठ बजते ही टीवी पर प्रसारण को सुनने का कर्तव्य पूर्ण किया जा सके । आठ पहले भी सुबह शाम बजते थे अभी भी बजते हैं आगे भी बजते रहने हैं , मगर आठ बजे से जो संबंध साहिब जी है किसी का किसी से शायद ही हुआ होगा । आठ बजना लगता है कोई चेतावनी जैसा है कभी जागते रहो की आवाज़ की गूंज सुनाई देती थी तब क्योंकि अधिकांश लोग रात का खाना खाकर आंगन में या फिर बंद कमरे में अथवा मौसम के अनुसार बरामदे में चारपाई बिस्तर लगाकर चैन से सोते थे और कभी कोई ख़्वाब भी देख लिया करते थे । आजकल सोशल मीडिया टीवी और गलियों सड़कों पर दौड़ते भागते वाहनों का शोर के साथ कितनी तरह की आवाज़ें नींद उड़ाती रहती हैं इसलिए नींद भी सोने के भाव की तरह महंगी हो गई है । आपको आठ बजे से पहले क्या क्या करना है बड़ा सवाल है आपकी कितने मिंट में गलती दाल है कोई मिसाल है । वक़्त की बात क्या है चलता अपनी चाल है अच्छा है वक़्त तो क्या खूब है क़िस्मत का कमाल है , सभी को अपने समय का ख़्याल है । 

आपकी घड़ी में क्या बजा है कोई नहीं बताता सही समय कभी न कभी आएगा , जन्म समय तारीख़ जगह कितना कुछ मिलाकर आपकी राशि आपके ग्रह आपके सितारे बताते हैं भविष्य क्या होगा । आठ बजे किसी की शुभघड़ी हो सकती है लोग सत्ता मिलते शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं शपथ उठाते हैं । शाम को आठ बजते ही कुछ लोग अपने ठौर ठिकाने जाते हैं कुछ महफ़िल सजाकर जश्न - ए - आज़ादी मनाते हैं महखाने बैठ कर जाम से जाम टकराते हैं । हमसे मत पूछना हम रोज़ प्यासे जाते हैं प्यासे लौट आते हैं , लोग कहते हैं आप बिना पिये ही लड़खड़ाते हैं । लोग जागते रहते हैं रंगीन रातों को हसीनों की अदाएं देखते हैं मधुर गीत सुनते हैं मौज मनाते हैं । जाग जाग कर कुछ आशिक़ किसी की याद में अश्क़ बहाते हैं , कभी हुई शाम उनका ख़्याल आ गया , वही ज़िंदगी का सवाल आ गया गुनगुनाते हैं । मुझे पुराने यार याद दिलाते हैं कि तुम भी क्या आदमी थे सुबह होते ही यही गीत गाने लगते थे । हमको अभी उनका इंतिज़ार करना है चाहे झूठा वादा भी करें अच्छे दिन आने वाले हैं ऐतबार है करार करना है । 

गुमनाम फिल्म देखी थी आधी रात को दूर कोई आवाज़ सुनाई देती थी,  गुमनाम है कोई , बदनाम है कोई । किस को खबर कौन है वो अनजान है कोई । किसको समझें हम अपना , कल का नाम है इक सपना , आज अगर तुम ज़िंदा हो तो कल के लिए माला जपना । पल दो पल की मस्ती है , बस दो दिन की हस्ती है , चैन यहां पर महंगा है और मौत यहां पर सस्ती है । कौन बला तूफ़ानी है मौत को खुद हैरानी है , आए सदा वीरानों से जो पैदा हुआ वो फ़ानी है । साठ साल पहले 1965 की फिल्म है , रहस्यमयी फिल्मों की शायद उसी से शुरुआत हुई थी । आजकल तो फ़िल्में सीरीज़ से लेकर सामाजिक वातावरण में कितनी तरह की अटकलें कितनी आहटें शोर बनकर आपको हैरत में डालती रहती हैं । आज रात आठ बजे क्या होगा हर कोई सांस रोके बेचैनी से इंतिज़ार कर सकता है क्योंकि उस वक़्त पर किसी एक को छोड़कर बाक़ी किसी का बस नहीं है ये भी किसी के कॉपीराइट से छोटी बात नहीं है । आधा घंटा अभी बाक़ी है चलो इक ग़ज़ल पुरानी से पटाक्षेप करते हैं इस कथा कहानी का ।



महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया ( ग़ज़ल ) 

        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।

हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।

मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।

हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।

हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।   
 
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