मई 22, 2024

POST : 1825 लोकतंत्र पर कितने घने साये हैं ( दर-हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

  लोकतंत्र पर कितने घने साये हैं  ( दर-हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया 

दिल को बहलाने को ये ख़्याल अच्छा है वर्ना हम जानते हैं इस लोकतंत्र की हक़ीक़त क्या है । इतनी सारी इतनी ज़रूरी बातें हो सकती हैं चुनाव के समय कोई जनता की भलाई की सरकार बनाने को लेकिन किस को फुर्सत है समाज देश की कुछ अलग अच्छा बदलाव करने की जिसे देखो उन्हीं फज़ूल की बातों में उलझा हुआ है । जागरूक होना क्या जागरूकता फैलाना क्या खुद भी किसी जाल में जकड़े हुए हैं और चाहते हैं तमाम लोगों को भी किसी न किसी के पिंजरे में कोई टुकड़ा टंगा देख खुद ही लालच में आकर बंधक बना बेबस मज़बूर हो जाए । राजनैतिक दलों की रैलियां रोड शो आयोजित करने में जनता या लोकतंत्र का क्या भला हो सकता है , ऐसा किया जाता है अपनी धन दौलत और अन्य कितनी तरह की ताकत का दिखावा करने को । जनता की समस्याओं की परेशानियों की बात का कोई महत्व नहीं रहता है और राजनेताओं उनके दलों का वर्चस्व स्थापित किया जाता है ताकि आपको किसी न किसी के पीछे भीड़ बनकर खड़ा किया जा सके । टीवी पर अख़बार में जो भी राजनैतिक दल जैसा प्रचार करवाना चाहता हो अपना इश्तिहार पैसे दे कर चलवा सकता है और हर कोई एकतरफा संवाद ही नहीं जनता को भेड़ बकरियों की तरह अपनी तरफ लाने को हथकंडे अपना सकता है । और इतने अधिक शोर शराबे में हम सभी याद ही नहीं रखते कि इतने साल तक जितनी भी सरकार हमने बनवाई उनसे हमको क्या सच में अपने सभी संवैधानिक अधिकार मिले भी हैं या शायद उनको लेकर कोई चर्चा ही नहीं । फिर से दोहराना चाहता हूं कि सत्ता या विपक्ष कोई भी जनता को कभी कुछ नहीं देता न दे सकता है इसलिए ये घोषणा करना कि हमने जनता को कुछ दिया है या देना चाहते हैं बेहद अनुचित और लोकतांत्रिक विचारधारा के ख़िलाफ़ है ।

कुछ सालों से जनता को प्रभावित या भर्मित करने की कोशिशें सोशल मीडिया को मंच बनाकर ही नहीं बल्कि कितनी तरह से आपको उलझा कर की जा रही हैं । आपको आपकी बात से भटका कर और कितनी तरह की बिना मकसद की बातों में उलझाते हैं , किस दल किस नेता को कैसा समझते हैं जैसी चर्चा आपको सोच को खुद अपनी बात से अलग कर व्यर्थ की बहस वाद विवाद में फंसा देते हैं । लगता है किसी को देश की जनता की इक सही मायने में लोकतांत्रिक व्यवस्था की चिंता नहीं सभी का मकसद अपना मत थोपना है अर्थात आपकी सोचने समझने की आज़ादी को कुंद कर आपको अपने हाथ की कठपुतली बनाना चाहते हैं लोग । ध्यान पूर्वक देखना सोशल मीडिया से टीवी अख़बार तक चुनाव जैसी गंभीर बात को कॉमेडी की तरह पेश कर जैसा किया जा रहा है उस से कोई आदर्श व्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती है । और कैसे कैसे लोग नेता बने फिरते हैं जिनका कोई मकसद ही नहीं सिवा सांसद विधायक बन कर सत्ता सुःख हासिल करने के । क्या उनको आपका कोई ख़्याल भी है बिल्कुल नहीं उनको सिर्फ अपनी जीत चाहिए फिर जीतने को भले जो भी करना पड़े उनको उचित लगता है । 
 
हमने कभी सबक नहीं सीखा है कि हमारे साथ हमेशा से सरकार राजनेता प्रशासन कैसा बर्ताव करते रहे हैं , अपनी छोटी छोटी बातों के लिए कितनी परेशानी उनसे मिलती रहती है । ऐसा लगता है जनता को कुछ ख़ास वर्ग के लोगों ने अपना ग़ुलाम समझ लिया है । अपनी आज़ादी को किसी भी कीमत पर हम छोड़ नहीं सकते उसको आसानी से नहीं पाया है हमने अनगिनत शहीदों ने आज़ादी की कीमत अपनी जान देकर चुकाई है । हमको उनके आदर्शों सपनों को टूटने नहीं देना न किसी के पास गिरवी रखना है लेकिन कभी सोचा है जो आपको झूठे सपने दिखलाते हैं खुद उन्होंने अपनी आज़ादी किसी के पास गिरवी नहीं रखी बल्कि बेच दिया है अपना ईमान कुछ पैसों की ख़ातिर । अजीब विडंबना है कभी देश ग़ुलाम था फिर भी देशवासी कायर नहीं थे ज़ालिम से टकराते थे अपने देश को गुलामी की जंज़ीरों से मुक्त करवाने को कुछ भी करते थे मगर आज हम जानते हुए समझ कर भी सच बोलने का साहस नहीं करते हज़ार तरह के डर सताते हैं । ज़िंदा हो कर भी हम लोग ज़िंदा हैं नहीं चलती फिरती लाश बन गए हैं , कुछ लोग हमको साहस पूर्वक बात कहने पर समझाते नहीं डराते हैं छिपी हुई धमकियां देते हैं खामोश रहो अन्यथा उनकी ताकत तुम्हें मिटा देगी क्या ये लोकतंत्र है । अब तो कुछ लोग संविधान और लोकतंत्र की भावना का आदर नहीं करना जानते और समझते हैं की कोई राजनेता उन सब से बढ़कर महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि उस को जनता हटा भी नहीं सकती । अजीब खेद जनक बात है कि किसी व्यक्ति को समझना कि वही इक मात्र शासक होना चाहिए कोई विकल्प नहीं लोगों के पास । यकीनन इसको लोकतंत्र कदापि नहीं कह सकते और जो भी लोकतंत्र और संविधान को नहीं अपनाते उनको हाशिये पर होना चाहिए यही उपाय है । 
 
संक्षेप में कुछ कारण ढूंढते हैं , कुछ लोगों ने राजनीति में प्रवेश करने को किसी को सीढ़ी बनाया है खुद को किसी का चाटुकार बना कर आत्मसम्मान को खो कर उसकी वंदना करने लगते हैं । समाज से इक धनवान वर्ग अपनी सुख सुविधा और फायदा उठाने की खातिर राजनेताओं को प्रशासन को पैसा देते हैं जिस से आम जनता का जीवन दूभर होता है जब वो रिश्वत नहीं देना चाहते तब उनको परेशान किया जाता है । जनता की सेवा की बात चुनाव में भाषण तक होती है निर्वाचित होने के बाद किसी को परवाह नहीं होती है । पिछले 76 सालों में हमने कुछ करना सीखा है तो यही कि जिन्होंने कितना कुछ किया देश की खातिर उनकी कमियां ढूंढ कर उनको नायक से ख़लनायक साबित करने में माहिर हो गए हैं । बुद्धिजीवी हाशिये पर हैं और जिनको इतिहास और देश की वास्तविकता की कोई समझ नहीं वो सोशल मीडिया से अधकचरी जानकारी हासिल कर खुद को महान विद्वान समझने लगे हैं । कहने को सभी गांधी सुभाष भगत सिंह की बात करते हैं लेकिन कोई उनकी दिखाई राह पर चलता नहीं कभी भी । 14 अगस्त 2012 को ब्लॉग पर लिखी कविता जो शायद पहली बार मैंने अपने शहर में आयोजित कवि गोष्ठी में पढ़ी थी से अपनी बात को विराम देता हूं ।


जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जश्ने आज़ादी हर साल मनाते रहे
शहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।

याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी 
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।

दम घुटने लगा पर न समझे यही 
काट कर पेड़ क्यों शहर बसाते रहे ।

लिखा फाइलों में न दिखाई दिया
लोग भूखे हैं सब नेता झुठलाते रहे ।

दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी
आइनों पर सभी दोष लगाते रहे ।

आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे हुआ
बाड़ बनकर रहे खेत भी खाते रहे ।

यह न सोचा कभी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ भुलाते रहे ।

मांगते सब रहे रोटी , रहने को घर
पांचतारा वो लोग होटल बनाते रहे ।

खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन
वो सुनाते रहे लोग भी गाते रहे ।
 

 

3 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह सटीक

Sanjaytanha ने कहा…

बहुत बढ़िया आलेख आज के दौरे सियासत पर

Sanjaytanha ने कहा…

👍👌