मई 20, 2024

तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

    भक्ति समर्पण की चरम सीमा होती है लेकिन चाटुकारिता की शुरुआत ही उस सीमा से आगे पहुंच कर होती है । चाटुकारिता की तपस्या में व्यक्ति अपना सर्वस्व छोड़ कर किसी की वंदना में अपने विवेक का त्याग कर अपने आराध्य देवता की कही हर बात को स्वीकार करता है झूठ सच का अंतर नहीं किया जाता बस जिसे स्वामी समझा तन मन धन सब कुछ उसके हवाले , उसकी मर्ज़ी है जीने दे चाहे मार डाले । देश आज़ाद हुआ लेकिन अधिकांश लोग गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलना ही नहीं चाहते वही समझते हैं किसी की कैद में रहना भी आनंददायक अनुभूति करवाता है । आपने मुझे ठोकर लगाई मुझे प्रतीत हुआ कि ये भी आपका मुझसे सच्चा प्रेम ही है , मगर मुझे एहसास होने लगा है कि ऐसा करते हुए आपके नर्म कोमल पांव को कोई दर्द तो नहीं हुआ होगा । भगवान के चरणों में भक्त का स्वर्ग होता है मुक्ति का मार्ग है चरणवंदना से जो भी मिलता है । कलयुग में कितने ही आधुनिक अवतार दिखाई देते हैं कौन कितना महान है कहना कठिन है इसलिए सब को एक समझ कर कल्पना से उनकी आधुनिक कथा लिखने का प्रयास करते हैं सबसे पहले भूल चूक की गलती की क्षमायाचना अगर कुछ कोर कसर रह जाती है तो नादानी नासमझी समझ छोड़ देना । 
 
पहला अध्याय : - 
 
भीड़ ही भीड़ है लगता है कोई समंदर है जिस में इंसान कीड़े मकोड़े जैसे लगते हैं । कोई आता है मंच पर ख़ामोशी छा जाती है सभा भी निःशब्द लगने लगती है ऐसे में इक जानी पहचानी आवाज़ फिर वही बात दोहराती है । बताओ क्या मैंने कहा सच है जवाब आता है हाथ उठा कर सच है बिल्कुल वही सत्य है बाक़ी कुछ भी सच नहीं है । भाषण सच है हक़ीक़त झूठ आपके नाम की लूट है लूट सके जो भी ले लूट । कितना शानदार लिबास है कितना महंगा है सूट बूट आपको है सब करने की छूट रूठे दुनिया आप नहीं जाना रूठ । शतरंज का खेल है राजा रानी घोड़ा हाथी सबकी चाल अलग अलग है प्यादों की कैसी औकात दिन को भी कहना है रात । हमने दिल आपको सौंप दिया है संभाल सको तो है उपकार नहीं जो संभला क्या हुआ जाना ही है सागर पार दिल आखिर शीशा होता है हो जाता है चकनाचूर आप हैं कितने करीब हमारे लेकिन हम हैं कितनी दूर । कौन आपसे जीत सकेगा कैसे हो सकती है आपकी हार कौन है जिस को यकीन नहीं जो भी कहते हैं इश्तिहार ।  हाथ छुड़ाए जाति हो , निर्बल जान के मोहे , हृदय से जब जाओगे , तो सबल जानूंगा तोहे ।  भक्ति में अंधा होना भी अभिशाप नहीं वरदान साबित होता है आंखें बंद हों चाहे खुली बस वही दिखाई देता है । 

                                  ( इति श्री प्रथम अध्याय )
 
 
 
 surdas | Spirtual Awareness

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

भक्ति की चरमसीमा से आगे ....चाटुकारिता 👍👍👌