जनवरी 18, 2021

POST : 1451 नासमझ नादान जानकार लोग ( किताबी समझ ) डॉ लोक सेतिया

  नासमझ नादान जानकार लोग ( किताबी समझ ) डॉ लोक सेतिया 

फेसबुक पर ग्रुप बनाया हुआ है साहित्य की बड़ी बड़ी कहते हैं उनकी पोस्ट पर कमेंटस और लाइक्स की संख्या बताती है उनका नाम महत्वपूर्ण है। हैरानी से अधिक खेद हुआ पढ़कर जो उन्होंने लिखा किसान और कृषि को लेकर। उन्हीं के शब्द हैं जिन देशों में खेती नहीं होती कुछ भी अनाज सब्ज़ी फल नहीं उगते क्या वहां लोग रोटी नहीं खाते हैं। उद्दाहरण दिया हुआ था उन देशों का जहां पीने का पानी तक मंगवाया जाता है बहरी देशों से। घर बैठे किताबी समझ से जो चाहा लिख दिया बिना जाने कि उस देश और अपने देश में कितना बड़ा अंतर है। हमारे देश की नब्बे फीसदी जनसंख्या के पास कुदरती संसाधन तेल या अन्य भंडार नहीं हैं उनकी तरह। अधिकांश आयातित खाद्य पदार्थ का महंगा दाम चुकाने में सक्षम नहीं हैं और सरकार की उदासीनता अमानवीय स्तर की है जिसको नागरिक की बुनियादी ज़रूरत की चिंता ही नहीं है। ऐसे ही लोग सरकारी वातानुकूलित भवन में बैठ कर अतार्किक नियम कानून बनाते हैं। हद तो ये है कि इस समय जब अर्थव्यवस्था के जानकर लोग समझ रहे हैं कि जब तमाम अन्य कारोबार धंधे चौपट हैं देश की अर्थव्यस्था को किसानी खेती ने संभाला है , तब भी इनको ज़मीनी वास्तविकता नहीं समझ आती है। उनको कुछ कहने समझाने की ज़रूरत नहीं है उनकी सोच पर दया करने तरस खाने की ज़रूरत है। 

लेकिन कुछ और लोग चकित हैं किसान आंदोलन में किसानों की हिम्मत ताकत और उनके जंगल में मंगल करने के तौर तरीके देख कर। बताया जा रहा है कि ये दौलतमंद बड़े बड़े किसान हैं जिनके पास आराम से रहने का सामान आसानी से उपलब्ध है। चलिए आपको वास्तविकता बताते हैं और ये किसी सरकारी विभाग या एनजीओ के आंकड़े नहीं हैं। देश की अधिकांश आबादी जिन पर निर्भर है रोटी रोज़गार के मामले में उन किसानों जिनके पास खेती की ज़मीन है का सच ये है कि उनकी वार्षिक आमदनी से अधिक क़र्ज़ उन पर हमेशा रहता है। सिर्फ उनकी बात नहीं जो परेशान होकर ख़ुदकुशी करते हैं ये ऐसे सभी वास्तविक किसानों की सच्चाई है जिनका कृषि ही जीवन बिताने का ज़रिया है जिनका दूसरा कोई कारोबार नहीं है। हिसाब लगाओ उनका क्या हाल है जो बीज खाद सरकारी समिति से उधार लेते हैं ट्रैक्टर और कितना साज़ो सामान बैंक से क़र्ज़ लेते हैं और घर की हर ज़रूरत की चीज़ बाज़ार से उधार लेते हैं जो व्यौपारी मनमानी कीमत वसूलते हैं। कोई परेशानी रोग आदि होने पर सबसे अधिक खर्च उन को चुकाना पड़ता है। जितने भी कारोबारी हैं उनकी ज़्यादातर आमदनी उन्हीं से होती है जो समाज में निचली पायदान पर हैं। 

ये अपने बिजली के बिल समय पर नहीं भर पाते हैं और जाने कितनी तरह के जुर्माने भरते हैं आपको नहीं मालूम ये किस तरह जीते हैं मरते हैं। आप सरकारी कर्जमाफी की बात सुनते हैं उसकी असलियत नहीं जानते हैं जैसे ऊंठ के मुंह में जीरा बस दम घुटने लगता है थोड़ी ऑक्सीजन देकर उपकार करते हैं वो भी वोटों का कारोबार करते हैं। ये मिट्टी से जुड़े लोग अपनी मिट्टी से पैदा होते हैं मिट्टी से प्यार करते हैं मिट्टी होकर मरते हैं। आपको ये कभी उदास निराश नहीं नज़र आएंगे खाली जेब होगी तब भी मुस्कारकर सभी को गले लगाएंगे। बिना जान पहचान कभी उनके गांव घर जाओगे अपनापन और महमाननवाज़ी देख कर समझ पाओगे कोई परायापन नहीं बस मुहब्ब्तें साथ लाओगे। जीना सीखना है कैसे हर हाल में खुश रहते हैं खुले दिल आंगन दरवाज़े और शाम ढलते लोकधुन पर झूमते गाते लोग नई दुनिया लौट कर भुला नहीं पाओगे। ये कैसे है शायद खुद भी नहीं बता सकते हैं हम आपको इक मां से मिला सकते हैं। मां की ममता की छाया का कमाल होता है चाहे बचपन कैसा भी हो नौनिहाल खुशहाल होता है अपनी माता पर यकीन होता है उसकी गठड़ी में खुशियों का अंबार होता है। इक यही रिश्ता सदाबहार होता है जिसका शुरुआत नहीं आखिर नहीं सब बेहिसाब होता है न कोई नकद न क़र्ज़ चुकाना नहीं कभी बकाया उधार होता है। हम सभी की मां कभी साथ रहती है कभी दूर रहती है जब नहीं रहती ज़िंदा तब भी अंदर हर पल ज़रूर होती है। किसान की जन्म देने वाली और पालने पोसने दुलारने वाली दोनों मां होती हैं। भगवान कृष्ण की तरह देवकी और यशोदा का लाडला कन्हैया नटखट माखनचोर गोपाल बांसुरी बजाता है सुदामा जैसा दोस्त राधा रानी जैसा पावन प्यार मिलता है तब कितने दैत्य दानव से निडर होकर लड़ता है असंभव को संभव कर दिखाता है। मां का आशीर्वाद संग होता है तो इंसान इंसान से क्या नियति से भी जीत जाता है। 
 
 वास्तविक ख़ुशी जिन बातों से मिलती है वे सब आपको किसी गांव में खेत की लहलहाती ह्री भरी गेंहूं की बालियों सरसों के पीले फूलों की मनमोहक मुस्कुराती नाज़ुक डालियों के करीब मिलती हैं। शहर महानगर की भीड़ में खुले मन आंगन और निश्छल प्यार दोस्ती की तलाश करते हैं तो लगता है किसी रेगिस्तान की मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं। अपनी इक ग़ज़ल के शेर याद आते हैं। 

गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल )  डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 
गांव  अपना छोड़ कर , हम  पराये हो गये 
लौट कर आए मगर बिन  बुलाये हो गये।

जब सुबह का वक़्त था लोग कितने थे यहां
शाम क्या ढलने लगी ,  दूर साये हो गये।

कर रहे तौबा थे अपने गुनाहों की मगर 
पाप का पानी चढ़ा फिर नहाये  हो गये।

डायरी में लिख रखे ,पर सभी खामोश थे
आपने आवाज़ दी , गीत गाये  हो गये।

हर तरफ चर्चा सुना बेवफाई का तेरी
ज़िंदगी क्यों  लोग तेरे सताये  हो गये।

इश्क वालों से सभी लोग कहने लग गये 
देखना गुल क्या तुम्हारे खिलाये हो गये।

दोस्तों की दुश्मनी का नहीं "तनहा" गिला
बात है इतनी कि सब आज़माये  हो गये। 

कोई टिप्पणी नहीं: