सरकार नहीं इश्तिहार है ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया
2956433 संख्या शौचालय बनाने का दावा किया गया है हरियाणा सरकार के ताज़ा विज्ञापन में। शायद कुछ ऐसी संख्या हो सकती है पिछले चार साल में हरियाणा सरकार के विज्ञापनों की भी। दुष्यन्त कुमार की भी कल्पना इस सीमा की नहीं रही होगी क्योंकि तब सरकारी इश्तिहार इस तरह बदलने का चलन नहीं था। चलो इस की सच्चाई को छोड़ देते हैं यकीन करते हैं कम से कम सरकारी फाइलों में तो गिनती सही होगी। मगर मुमकिन ये भी है कि सरकारी विज्ञापन बनाने से पहले इस बात का विचार किया गया हो कि कौन सी संख्या शुभ होगी। ये हो सकता है अंक ज्योतिष वाले इन को जोड़ कर भाग्यशाली अंक की बात कर सकते हैं ये विचार करते हुए कि 75 का आंकड़ा हासिल करना है तो 39419 की गिनती का महत्व है। 32849 काफी होते तो 90 का आंकड़ा भी मुमकिन था। किस किस गांव में कितने बने हैं किसको जाकर गिनती करनी है। मगर इक बात साफ़ है गालिब के शेर की तरह , कहां महखाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहां वाईद , पर इतना जानते हैं हम कल वो जाता था कि हम निकले। मुझे इतना तो पता है कि साल डेढ़ साल पहले जब हरियाणा के सीएम खट्टर फतेहाबाद पुलिस के राहगिरी कार्यकर्म में भाग लेने आये थे तब मॉडल टाउन पपीहा पार्क के बाहर चार चलते फिरते शौचालय जींद से लेकर एक दिन को दिखाने को खड़े किये गए थे। अगले दिन वापस ले जाते हुए नज़र आये थे तो सोशल मीडिया पर शेयर किया था मैंने। ये बताना उचित होगा कि उनको उपयोग नहीं किया जा सकता था क्योंकि कोई पानी की सीवर की व्यवस्था नहीं थी और न ही उनको इस्तेमाल करने को कोई सीढ़ी लगाई गई थी। तभी सवाल उठाया था अगर फतेहाबाद शहर में उपलब्ध होते तो जींद से मंगवाने की ज़रूरत नहीं होती। मगर बात केवल शौचालय की संख्या की नहीं है। असली विषय है ये सरकार है ये इश्तिहार है जैसे आजकल अख़बार देख कर समझना मुश्किल होता है कि क्या समाचार है खबर है और क्या इश्तिहार है ये पैसे देकर छपी खबर है।
अधिक विस्तार में नहीं जाकर फिर से बताना है 2002 में लिखा लेख कादम्बिनी के फरवरी अंक में छपा था , आज तक का सबसे बड़ा घोटाला। सरकारी विज्ञापन की ही बात थी और आंकड़े देकर बताया था कि पिछले पचास साल से तब तक जितना धन इस तरह से खर्च नहीं बर्बाद कहने से भी आगे बढ़कर कह सकते हैं टीवी अख़बार वालों को खुश करने अपने प्रभाव में रखने को सभी घोटालों की धनराशि से अधिक कुछ मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचाने को किया जाता रहा सभी सत्ताधारी लोगों द्वारा। मुझे याद है जो आज सत्ता पर काबिज़ हैं तब उनको मेरी बात सौ फीसदी सही लगी थी , मगर शायद उन्हीं की सरकार ने पिछली सभी सरकारों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। पहले बात अपने आलोचना से बचना भर था जो आज उस से बहुत खतरनाक बढ़ कर चुनावी जीत का साधन बना लिया गया है। आज सत्ताधारी दल के नेता मानते ही नहीं दावा करते हैं कि चुनाव सोशल मीडिया के दम पर उसका सहारा लेकर लड़ना है और जीतना है। आपको इस का अर्थ समझना होगा।
स्मार्ट फोन फेसबुक व्हाट्सएप्प पर आप मनचाही बात पहुंचा सकते हैं सामने से कोई सवाल नहीं कर सकता है। जनता से एकतरफा संवाद लोकतंत्र की निशानी नहीं हो सकता है। ऐसा मुमकिन है कि सरकार की वास्तविकता पता चले तो हैरानी हो कि कितने इश्तिहार छपते रहे कितना धन व्यर्थ खर्च किया जाता रहा केवल किसी नेता को महिमामंडित करने को जबकि उनका यही कदम किसी लूट से कम नहीं है। रोज़ सामने आती है खबर कि सार्वजनिक शौचालयों की दशा कितनी खराब है कहीं साफ सफाई नहीं कहीं पानी ही नहीं है। जनता के पैसे को अपनी मर्ज़ी से कुछ लोगों को या किसी ख़ास व्यक्ति संस्था को मुहैया करवाना ईमानदारी हर्गिज़ नहीं कहला सकता है। लोकलाज की परवाह नहीं करते हुए चुनवी लाभ के लिए सरकारी खज़ाने का दुरुपयोग करना अनुचित है। वास्तव विकास लोगों को सामने दिखाई देना चाहिए जो नहीं नज़र आता तभी महीने बाद पुराने इश्तिहार को बदल कोई नया इश्तिहार चिपकवा देते हैं। दुष्यंत कुमार को लगता था , अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार , घर की हर दिवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार। इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं , आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
इश्तिहार देना पड़ता है जब बेचना हो और बिकने को सामान भी हो। तो क्या राजनीति भी घोड़ा मंडी है जो आजकल संसद विधायक बिकते खरीदे जाते हैं। इंसान जब बिकने लगता है तो इंसान नहीं रह जाता और नेता शायद इंसान नहीं कुछ और होते हैं असली कम नकली माल ज़्यादा। चमकती हुई हर चीज़ सोना नहीं होती है लोग ठगे जाते हैं पैकिंग या बाहरी चमक दमक आवरण की सज धज देख कर। जिस्मफरोशी के बाज़ार की रौशनियां आंखों को चुंधियाती हैं मेकअप का कमाल है जो वैश्या हरदम सुंदर और जवान लगती है। जाने सत्ता कोई अमृत कलश है जो बूढ़े भी पहले से जवान फुर्तीले होने लगते हैं। आजकल अजब ज़माना है लोग खाली शोरूम से ऑनलाइन सभी बेचते हैं खुद पास कुछ भी नहीं होता न कुछ बनाते हैं। इधर उधर से उठाते हैं बेचते हैं खूब मुनाफा कमाते हैं। बड़े धोखे हैं इस राह में बाबूजी ज़रा संभलना। राजनीति अब भरोसे की बात नहीं रही इस हाथ ले उस हाथ दे यही बन गई है। इश्तिहार पढ़कर लगता है कोई अपना माल लुटवा रहा है एक के साथ एक मुफ्त या 50 फीसदी ऑफ लुभाता है दुकानदार पहले से कई गुणा बढ़ी कीमत का लेबल लगाता है। खरीदार इसी लालच में फंसता है मार खाता है मॉल में सौ रूपये वाला सामान फुटपाथ पर दस रूपये में मिल जाता है मगर सस्ता माल घटिया कहलाता है। बाज़ार का इश्तिहार से गहरा नाता है पीतल झूठ का शाम तक सारा बिक जाता है खरा सोना बिना बिका रहकर खुद पर शर्माता है। देख लो झूठ अपने पर कितना इतराता है। चलो इक ग़ज़ल सुनाता हूं सरकार क्या होती है थोड़े में समझाता हूं।
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।
फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को ,
कहने को पर उनका खुला दरबार है।
रहजन बना बैठा है रहबर आजकल ,
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।
जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को ,
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।
इंसानियत की बात करना छोड़ दो ,
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।
हैवानियत को ख़त्म करना आज है ,
इस बात से क्या आपको इनकार है।
ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां ,
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है।
है पास फिर भी दूर रहता है सदा ,
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।
अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे ,
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है।
इश्तिहार देना पड़ता है जब बेचना हो और बिकने को सामान भी हो। तो क्या राजनीति भी घोड़ा मंडी है जो आजकल संसद विधायक बिकते खरीदे जाते हैं। इंसान जब बिकने लगता है तो इंसान नहीं रह जाता और नेता शायद इंसान नहीं कुछ और होते हैं असली कम नकली माल ज़्यादा। चमकती हुई हर चीज़ सोना नहीं होती है लोग ठगे जाते हैं पैकिंग या बाहरी चमक दमक आवरण की सज धज देख कर। जिस्मफरोशी के बाज़ार की रौशनियां आंखों को चुंधियाती हैं मेकअप का कमाल है जो वैश्या हरदम सुंदर और जवान लगती है। जाने सत्ता कोई अमृत कलश है जो बूढ़े भी पहले से जवान फुर्तीले होने लगते हैं। आजकल अजब ज़माना है लोग खाली शोरूम से ऑनलाइन सभी बेचते हैं खुद पास कुछ भी नहीं होता न कुछ बनाते हैं। इधर उधर से उठाते हैं बेचते हैं खूब मुनाफा कमाते हैं। बड़े धोखे हैं इस राह में बाबूजी ज़रा संभलना। राजनीति अब भरोसे की बात नहीं रही इस हाथ ले उस हाथ दे यही बन गई है। इश्तिहार पढ़कर लगता है कोई अपना माल लुटवा रहा है एक के साथ एक मुफ्त या 50 फीसदी ऑफ लुभाता है दुकानदार पहले से कई गुणा बढ़ी कीमत का लेबल लगाता है। खरीदार इसी लालच में फंसता है मार खाता है मॉल में सौ रूपये वाला सामान फुटपाथ पर दस रूपये में मिल जाता है मगर सस्ता माल घटिया कहलाता है। बाज़ार का इश्तिहार से गहरा नाता है पीतल झूठ का शाम तक सारा बिक जाता है खरा सोना बिना बिका रहकर खुद पर शर्माता है। देख लो झूठ अपने पर कितना इतराता है। चलो इक ग़ज़ल सुनाता हूं सरकार क्या होती है थोड़े में समझाता हूं।
सरकार है बेकार है लाचार है - लोक सेतिया "तनहा"
सरकार है , बेकार है , लाचार है ,सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।
फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को ,
कहने को पर उनका खुला दरबार है।
रहजन बना बैठा है रहबर आजकल ,
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।
जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को ,
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।
इंसानियत की बात करना छोड़ दो ,
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।
हैवानियत को ख़त्म करना आज है ,
इस बात से क्या आपको इनकार है।
ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां ,
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है।
है पास फिर भी दूर रहता है सदा ,
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।
अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे ,
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है।
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