गलत परंपराओं आडंबरों को ढोते हम लोग - डॉ लोक सेतिया
आपका आदर्श कौन है , अगर आप किसी की शोहरत या सफलता से प्रभावित होकर उसको अपना नायक मानते हैं और उसकी तस्वीर या पत्थर से बनाई मूरत की आरती पूजा करते हैं तो शायद आपको इक बात पर विचार करना चाहिए कि ऐसा करने से हासिल क्या होगा और क्या ऐसा कर के आप अपनी भीतर की छुपी हुई गुलामी की मानसिकता का परिचय तो नहीं दे रहे हैं। हम कुछ ख़ास नामों का गुणगान किया करते हैं और देश को उनके योगदान की बात करते हुए उनके बुत उनकी समाधियां उनके नाम पर कोई इमारत बना उनकी वस्तुओं को सहेज कर रखते हैं जिस पर हर साल सालों साल देश की जनता का धन खर्च किया जाता है जो किसी गरीब देश जिस में आधी आबादी शिक्षा स्वास्थ्य बुनियादी ज़रूरतों से बंचित है पर खर्च किया जाता तो मुमकिन है उन्हीं महान नायकों को सच्ची श्रद्धांजलि होती। हमने विचार को छोड़ केवल दिखावे को किसी के नाम पर आडंबर करना आसानी समझी है। देश की आज़ादी अथवा देश के निर्माण में अगर योगदान की बात की जाये तो केवल उन्हीं नाम वाले लोगों ने सभी कुछ नहीं किया है बल्कि सच तो ये है इस में तमाम बाकी लोगों का भी योगदान रहा है और शायद उनके साथ अन्याय है कि उनकी काबलियत महनत को दरकिनार कर थोड़े से लोगों को महत्व देने का कार्य किया जाये। देश समाज के लिए कुछ भी करना सभी का कर्तव्य है और ऐसा कभी नहीं माना जाना चाहिए कि उन्होंने देश पर कोई उपकार या एहसान किया था जिसे सदियों तक हमको क़र्ज़ की तरह चुकाना होगा। जिन लोगों ने देश की सेवा करने को समाज को बेहतर बनाने को जो भी किया उनको उस से ख़ुशी मिलती थी और अपना कर्तव्य समझते थे बदले में कोई चाहत तमगे आदि की नहीं रखते थे। उनके कार्य को अधूरा छोड़ उनके नाम पर देश का धन खर्च करना उनका आदर करने से अधिक उनकी विचारधारा को भुलाना है। इक पुल कोई शुरुआत करता है बनाने की और कोई बनकर तैयार होने पर उद्घाटन करता है दोनों के नाम के शिलालेख लगा देते हैं जबकि पुल बनाया किसी कारीगर किसी मज़दूर ने देश की जनता के कर द्वारा जमा धन से है और वास्तविक हकदार वही लोग हैं। सत्ताधारी राजनेता जनता के निर्वाचित सांसद विधायक जनता के नियुक्त सेवक हैं और उनको ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने को खज़ाने से जितना मिलता है वो बहुत अधिक है। वास्तविक जनता के सेवक तब कहलाते जब इतने अधिक साधन सुविधाएं नहीं लेकर सादगी से जीवन व्यतीत कर समाज कल्याण में योगदान देते। ये खेदजनक बात है कि अपने देश में राजनीति करने वालों में ऐसा सच्ची देशभक्ति की भावना नहीं है और निर्वाचित होने के बाद खुद को शासक और राजा महाराजा की तरह देश का मालिक समझने लगते हैं और मनमानी करते हैं। आपको अगर ये महान लगते हैं तो आपकी महानता की परिभाषा बदलनी चाहिए क्योंकि ये गलत है।
कब हम इस वास्विकता को समझेंगे कि नेताओं अधिकारियों की राजसी विलासिता के चलते ही देश की गरीबी बढ़ती रही है। जो सबसे आखिर में खड़े वंचित व्यक्ति के आंसू पौंछने की बात कहते थे हम उनकी समाधि को सजाने उस पर फूल चढ़ाने पर धन बर्बाद करते हैं तो उनकी विचारधारा के विपरीत आचरण करते हैं। नहीं गरीब देश में 150 एकड़ ज़मीन पर महल में किसी बड़े पद वाले का शाही ढंग से रहना जिस पर हर दिन कितने लाख खर्च होते हैं और इसके बावजूद गरीबों के दुःख दर्द की बात करना एक साथ नहीं हो सकते। इसको उचित कहना देश के गरीबों का उपहास करना है। देश समाज की सेवा इतने महंगी कीमत लेकर की जाती है तो नहीं ज़रूरत ऐसे देशसेवकों की सफेद हाथी की तरह बोझ बन गए है ये लोग। कोई सवाल नहीं करता इनसे कि आप पर कितना धन देश की जनता खर्च करती है क्या उस आम जनता को भी कोई न्यूनतम आय मिलनी ज़रूरी है कि नहीं। आंकड़ों की बाज़ीगरी नहीं देश में बड़े छोटे की खाई इतनी अधिक नहीं स्वीकार की जा सकती है कोई हर दिन हज़ारों करोड़ की आमदनी करे और किसी को दिन में रोटी खाने को सौ रूपये भी नहीं मिलते हों। जनता की सेवा का दम भरने वाले को आम नागरिक की औसत आमदनी से कितने गुणा अधिक मिलना चाहिए। विकसित अधिकतर देश में आम नागरिक की आय और सरकारी अमले की औसत आय या वेतन में दो से पांच गुणा अधिक का अंतर होता है अर्थात आम जनता अगर एक रुपया कमाती है तो सरकारी कर्मचारियों का औसत वेतन दो से पांच रूपये होता है जबकि यही हमारे गरीब देश में बीस तीस पचास गुणा होते होते आजकल हज़ारों गुणा हो चुका है और कोई सरकार कभी किसी बजट में इस पर इक शब्द नहीं बताती है। विदेशी शासक लूटते रहे थे मगर स्वदेशी तो उनसे भी बढ़कर लुटेरे निकले हैं। क्या किसी बजट में किसी सरकार ने बताया है कि पिछले पांच सालों में किस किस राजनेता पर सरकारी खज़ाने से कितना धन खर्च किया गया। चौंक जाओगे जानकर कि उनके एक एक मिंट की कीमत करोड़ों में हमने चुकाई है , विडंबना ये है कि ऐसा करने वाले हम आम नागरिकों को किसी गुनहगार की तरह समझती है।
अपराध उस व्यवस्था का है जिस के चलते कोई कारोबार की आड़ में कुदरत की दी हुई हवा पानी जैसी चीज़ों को हथिया कर बेचता है। जिस व्यवस्था की कल्पना आज़ादी पाने से पहले की गई थी उस में महल और झौंपड़ी का इतना अंतर स्वीकार नहीं था। इसकी छूट किसी को नहीं दी जानी चाहिए कि कोई सर छुपाने को जगह नहीं पाए और कोई आलीशान महल बनाकर रहता हो। देश की कुल संपत्ति का 70 प्रतिशत केवल दस प्रतिशत हथिया लेते हैं तो ऐसा व्यवस्था मंज़ूर नहीं की जा सकती है। जिस विकास की बात करते हैं नेता उस में मानवीयता की कोई बात नहीं है और देश इंसानों से होता है सड़कों इमारतों को विकास नहीं समझा जा सकता है।
1 टिप्पणी:
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 03/02/2019 की बुलेटिन, " मजबूत रिश्ते और कड़क चाय - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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