आस्तिकता और नास्तिकता के भंवर में ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
ये मेरी कैसी दुविधा हैबचपन से आज तक
मानता रहा हूं कि वो है
हर दुख में हर परेशानी में
उदासी के हर इक पल में
जब नहीं होता था कोई साथ
तब यकीन करता रहा हूं
कोई हो न हो वो तो है ना ।
जो जानता है मेरी हर इक बात
समझता है मेरे हालात मेरी विवशता
और मैं मन ही मन करता रहा विनती
उसी से निराशाओं की हर घड़ी में ।
और तमाम उम्र बिता दी
इक ऐसी झूठी उम्मीद के सहारे
जो कभी हो नहीं पाई पूरी जीवन भर ।
जब लगने लगा टूट चुकी है आस्था
और सोच लिया बस अब नहीं रहना
तकदीर बदलने की झूठी आशा में
जो पूरी नहीं हो पाई कभी भी अब तक ।
आशा और अंधविश्वास को लेकर
तब भी पल पल रहती है वही बात
मेरे दिल और दिमाग में इक डर बनकर
कहीं उसको नहीं मानना उसको और भी
नाराज़ तो नहीं करता होगा जिसको मैं
कभी खुश नहीं कर पाया अपनी आस्था से ।
मालूम नहीं इसको क्या कहते हैं
मैं आस्तिक हूं या नास्तिक रहा हूं
ढूंढता रहा उसको निराशा में मतलब को
पूजता रहा अपनी ज़रूरत की खातिर
अधूरा रहा मेरा विश्वास मेरी आस्था
इक शक रहा है विश्वास अविश्वास के बीच
आज भी खत्म नहीं हुई मेरे मन की दुविधा
उसको चाहता हूं मैं या केवल डरता हूं मैं ।
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