हे राम ( महात्मा गांधी से धर्म तक ) इक पक्ष ये भी
- डॉ लोक सेतिया
2 अक्टूबर को गांधी जी को याद किया गया , मगर किस को , हाड़ मांस के इंसान को। उस को नहीं जो इक विचार है सोच है , उसको भुला दिया गया कभी का। हमने इक रिवायत सी बना ली है हर दिन को किसी तरह मनाने की , बिना मकसद ही। शायद भटक गये हैं , समझ नहीं पा रहे किधर जाना था , किधर आ गये हैं , और आगे किस तरफ जाना है। धर्म राजनीति समाज सभी जगह बस औपचारिकता निभा रहे हैं लोग।बार बार होता है यही , कुछ ख़ास दिन किसी देवी देवता की उपासना की धूम मची रहती है। तब जिधर भी देखते हैं वही दोहराया जाता दिखाई देता है , जैसे आजकल नवरात्रे हैं तो जय माता दी की आवाज़ गूंजती रहती सुबह शाम हर शहर हर गांव हर गली। जगराता होता है रात रात भर माता के भजन उसकी आरती सुनाई देती रहती है। ऐसे साल भर में भगवान और देवी देवताओं की भक्ति उनकी पूजा अर्चना पर करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं। जब से मैंने होश संभाला है ऐसी बातें जिनको धर्म बताया जाता है बढ़ती ही गई हैं , लेकिन जो मुझे समझ आया है , अधर्म और पाप कम नहीं हुआ अपितु और भी अधिक होता जा रहा है। इक डॉक्टर होने के नाते मैं सोचता हूं अगर मेरी लिखी दवा से सुधार होने की जगह रोगी का रोग और बढ़ता जा रहा है तो ऐसी दवा को बंद करना ही उचित होगा। क्यों धर्म के पैरोकार बने लोग ऐसा धर्म को लेकर नहीं सोचते , क्या उनका मकसद वास्तव में धर्म को स्थपित करना बढ़ावा देना है , या उनको मात्र धर्म नाम से अपना कारोबार ही चलाना है। सोचना उन्हीं को है। मुझे तो इतना ही लगता है कि जितना धन लोग धार्मिक आयोजनों पर खर्च करते हैं उतना अगर धर्म कर्म पर खर्च करते तो मुमकिन है अधिक अच्छा होता। एक बात शायद हमें याद ही नहीं है कि दान धर्म पूजा आदि बताया गया है सभी ग्रंथों में कि हक हलाल की मेहनत की नेक कमाई से किया जाना चाहिये। किसी से लूट कर छीन कर या एकत्र कर के कदापि नहीं।
नरेंद्र मोदी जी जब प्रधानमंत्री बने तभी इक मंदिर में विदेश में गये थे पूजा अर्चना करने को। तब वे एक करोड़ मूल्य की 2 5 0 0 किलो चंदन की लकड़ी दान में दे आये थे , क्या ये धर्म था। यकीनन ये पैसा देश की तिजोरी से खर्च किया गया था , जनता की बुनियादी ज़रूरतों की खातिर बजट नहीं होता है , नेताओं की इच्छाओं की खातिर सब हाज़िर है। ये लोकतंत्र का राजधर्म नहीं है। कैसी विडंबना है कि इस मुल्क में गरीब जनता किसी लावारिस लाश की तरह है जिसको जलाने को बजट में प्रावधान नहीं है , मगर नेताओं की चिता जलाने को चंदन की चिता सजाई जाती है। ये कैसा जनतन्त्र है जिस में नेताओं की समाधियों के लिये कई कई एकड़ भूमि है मगर जनता की छत के लिये नहीं। इक राष्ट्रपति के आवास के रखरखाव पर ही करोड़ों रूपये हर महीने खर्च होते हैं , जितने पैसे से रोज़ हज़ारों लोग रोटी खा सकते हैं। कल महात्मा गांधी का जन्म दिन सरकार ने जाने कितना धन खर्च कर मनाया , क्या ये गांधी जी की विचारधारा से मेल खाता है। जो आदमी लोगों को नंगे बदन देख तय करता है कि उसने उम्र भर एक वस्त्र धोती ही डालनी है , उसकी विचारधारा का ये उपहास सरकार नेता और लोग कब तक करते रहेंगे।
सरकार का अर्थ ही जनता की सेवा के नाम पर धन की खुली लूट है बर्बादी है। अगर सरकारें फज़ूल खर्च नहीं करती तो देश में आज भूख और गरीबी नहीं होती। गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाने से आप गांधीवादी नहीं हो जाते , आपको सोचना होगा गांधी जी क्या चाहते थे। उन्हीं का कहना था कि इस भारत देश में इतना कुछ तो है जो सभी की ज़रूरतों को पूरा कर सके मगर इतना नहीं है जो किसी की भी धन सत्ता की हवस को भूख को पूरा कर पाये। आज वास्तव में गांधी जी को हर दिन कत्ल किया जाता है , उनके नाम पर आडंबर के के , और उनकी सोच को दरकिनार कर के ।
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