नवंबर 20, 2024

POST : 1920 चुपके से छुपते छुपाते धंधा है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  चुपके से छुपते छुपाते धंधा है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  आशिक़ी हो कि राजनीति हो कौन बच सकता है सभी करना चाहते हैं मगर सभी को सब कुछ मिलता नहीं है । लेकिन ये दो अलग अलग विषय हैं किताबें भी अलग अलग हैं , जाने क्यों नासमझ लोग आशिक़ी में भी राजनीति करने लगते हैं और कुछ लोग राजनीति में दिल लगा बैठते हैं , जबकि राजनीति में कोई भी किसी का होता नहीं है । लेकिन आज दोनों विषयों पर इक साथ लिखना मज़बूरी है क्योंकि आजकल समझना बड़ा दुश्वार है क्या ये राजनीति का कारोबार है या फिर किसी को किसी से हुआ सच्चा प्यार है । माजरा आपसी लेन देन का है और ऐसा लेना देना सार्वजनिक तौर पर नहीं करते अन्यथा हंगामा खड़ा हो जाता है । अधिकांश लोग अवैध लेन देन को रिश्वत कहना उचित नहीं मानते इसे उपहार कहना ठीक समझते हैं । सत्ता की राजनीति में उपहार का चलन पुराना है जनता को बड़ी मुश्किल से पड़ता मनाना है उसे अपना बनाना है तो नित नया रास्ता बनाना है । शराब की बोतल से कभी बात बन जाती थी कभी साड़ी बांटने से भरोसा जीत सकते थे वोट का नोट से रिश्ता अटूट है आपको सब करने की छूट है सरकार की योजना गरीबी मिटाने की नहीं है ये लूट खसूट है यही सच है बाक़ी सब झूठ है । भिक्षा कभी बेबस गरीब मांगते थे या फिर कुछ साधु संत सन्यासी पेट भरने को झोली फैलाते या भिक्षा पाने का कोई कटोरा हमेशा लिए रहते थे । भीख भिखारी भिक्षा सभी बदल चुके हैं आजकल ये धंधा सब बाक़ी व्यवसायों से अधिक आसान और बढ़िया बन चुका है उस से ख़ास बात ये है कि इस में कभी मंदा नहीं आता न ही इसको छोटा समझा जाता है । दानपेटी से कनपटी पर बंदूक रख कर ख़ुशी से चाहे मज़बूरी से देने के विकल्प हैं । दाता के नाम देने की बात आजकल कारगर साबित नहीं होती है डाकू गब्बर सिंह का तरीका भी अब छोड़ दिया गया है क्योंकि उस में खतरे अधिक और फायदा थोड़ा बदनामी ज़्यादा होती है । 

आपको ध्यान होगा कभी सरकारी दफ़्तर में रेड क्रॉस बांड्स के नाम पर वसूली खुले आम हुआ करती थी , बांड मिलते नहीं थे बस मूल्य देना पड़ता था । लेकिन हिसाब रखते थे वास्तव में कुछ बांड की बिक्री की कीमत जमा करते थे मगर उस पैसे को खर्च स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने पर नहीं बड़े अधिकारी की सुख सुविधाओं पर करते थे । तबादला होने पर अधिकारी खाते में जमा बकाया राशि कुछ खास अपने लोगों को वितरित किया करते थे , भविष्य में उसका फल मिलता रहता था । वक़्त बदला तो इस हाथ दो उस हाथ लो का नियम व्यवहारिक लगा तो परिणीति चुनवी बांड्स में हुई मगर कुछ ही समय बाद उनको अवैध घोषित कर दिया गया अदालत द्वारा । लोकतंत्र का तमाशा अजीब है जिस में ऐसी बातें राज़ कहलाती हैं जिनके बारे में हर कोई जानता है । जब तक सामने दिखाई नहीं देता किसी को कोई मतलब नहीं होता जानते हैं कि सभी दल यही करते हैं ईमानदारी की मूल्यों पर आधारित राजनीति कोई नहीं करता सब समझते हैं जो चाहे वही करूं मेरी मर्ज़ी । कोयले पर हीरे का लेबल लगाया हुआ है राजनीति काजल की कोठरी है कालिख से कौन बच सकता है । देश की आधी से अधिक संपत्ति धन दौलत कुछ लोगों के पास जमा हुई है तो सिर्फ इसी तरह से जनता से वसूल कर खज़ाना भरने और उस खज़ाने से योजनाओं के नाम पर अपनों को वितरित करने या अंधा बांटे रेवड़ियां फिर फिर अपने को दे । इधर चुनाव में बांटने बटने साथ रहने पर चुनाव केंद्रित था किसी को खबर नहीं थी कि मामला पैसे बांटने की सीमा तक पहुंचेगा ।
 
आपको क्या लगा जिस से बात शुरू की थी इश्क़ आशिक़ी उस को भुला दिया या उस का कोई मतलब ही नहीं है । ऐसा नहीं है सच कहें तो सिर्फ राजनेता अधिकारी उद्योगपति ही नहीं सभी पैसे से दिल लगा बैठे हैं पैसे की हवस ने समाज को पागल बना दिया है । राजनीति समाजसेवा देशभक्ति की खातिर नहीं होती अब आजकल सत्ता हासिल कर नाम शोहरत ताकत का उपयोग कर दौलत हथियाने को की जाती है । जिस जगह कभी कुंवां था शायर कहता है उस जगह प्यास ज़्यादा लगती है बस वही बात है जिनके पास जितना भी अधिक पैसा होता है उसकी लालसा उसका लोभ उतना ही बढ़ता जाता है । आपने ठगी करने की कितनी बातें सुनी होंगी ठग पहले कुछ लालच देते हैं बाद में लूटते हैं जैसे शिकारी जाल बिछाता है पंछी दाना चुगने आते हैं जाल में फंसते हैं । राजनीति जो जाल बुनती है बिछाती है दिखाई नहीं देता कभी कोई हादसा पेश आता है तो ढकी छुपी असलियत सामने आती है तब हम हैरान होने का अभिनय करते हैं जैसे हमको नहीं पता था कि ऐसा ही होता रहा है और होना ही है क्योंकि हमको आदत है बंद रखते हैं आंखें । आखिर में पेश है मेरी इक पुरानी ग़ज़ल । 
 

कैसे कैसे नसीब देखे हैं  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कैसे कैसे नसीब देखे हैं
पैसे वाले गरीब देखे हैं ।

हैं फ़िदा खुद ही अपनी सूरत पर
हम ने चेहरे अजीब देखे हैं ।

दोस्तों की न बात कुछ पूछो
दोस्त अक्सर रकीब देखे हैं ।
 
ज़िंदगी  को तलाशने वाले
मौत ही के करीब देखे हैं ।

तोलते लोग जिनको दौलत से
ऐसे भी कम-नसीब देखे हैं ।

राह दुनिया को जो दिखाते हैं
हम ने विरले अदीब देखे हैं ।

खुद जलाते रहे जो घर "तनहा"
ऐसे कुछ बदनसीब देखे हैं ।   
 

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