एक दिन को सब कुछ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
एक दिन दीपावली मनाते हैं ,
एक दिन दशहरा भी मनाते हैं ,
एक दिन उजाला करते हैं मन में ,
एक दिन बुराई को जलाते हैं।
एक दिन को आज़ादी है मिलती ,
एक दिन वोट दे सरकार बनाते हैं ,
एक दिन को मालिक बन कर फिर ,
पांच बरस सभी बस पछताते हैं।
एक दिन के खेल बहुत हैं यहां पर ,
हर दिन इक तमाशा बनाते हैं ,
एक दिन हर किसी को देकर हम ,
साल भर उसको भूल जाते हैं।
एक दिन महिला दिवस होता है ,
एक दिन बाल दिवस मनाया जाता ,
एक दिन पृथ्वी दिवस भी है यहां ,
एक दिन पर्यावरण को बचाते हैं।
एक दिन मज़दूर की बात करते हैं ,
एक दिन गणतंत्र दिवस सजाते हैं।
एक दिन स्वच्छता की बात होती है ,
बाद में गंदगी सभी फैलाते हैं ,
एक दिन होली और ईद का मिलन ,
बाकी दिन भाईचारा क्या भूल जाते हैं।
हर दिन तथाकथित पढ़े लिखे लोग ,
कोई न कोई सभा मिलकर कराते हैं ,
झूठ आडंबर की बड़ी बड़ी बातें कर ,
सभ्य और बड़े महान बन जाते हैं।
एक दिन को सब धर्मात्मा हैं यहां ,
गरीबों को भी जब खाना खिलाते हैं ,
मगर उन्हीं को करते नफरत भी हैं ,
लूट कर भी हम उनको ही खाते हैं।
एक दिन को खाई कसम ईमानदारी की ,
अगले ही पल जिसे भूल भी जाते हैं ,
हर दिन सोचते इक दिन जीना भी है ,
एक दिन यूं ही पर मर ही जाते हैं।
अब एक दिन ऐसा भी करें काश ,
एक दिन की रस्म को तोड़ आते हैं ,
जो भी करना हर दिन करें या फिर ,
अच्छाई को छोड़ बुरे कहलाते हैं।
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