दिसंबर 05, 2016

निर्णय डराने या निडर बनाने को ( न्यायपालिका का मकसद ) डॉ लोक सेतिया

   निर्णय डराने या निडर बनाने को ( न्यायपालिका का मकसद )

                                      डॉ  लोक सेतिया   

    सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश पारित किया था सिनेमाघर में फिल्म दिखाने से पहले राष्ट्रगीत को सुनाने और दिखाने को और सभी दर्शकों को खड़े होकर आदर पूर्वक सुनने का। भला इस को कोई अनुचित बता सकता है या इसकी आलोचना कर सकता है , मगर ये जान कर अचरज होता है कि हालत ऐसी आ गई है। अब लोगों को देशभक्त भी कानून द्वारा बनाया जाना पड़ेगा , देश से प्यार की भावना भीतर से नहीं जाग सकती जो बाहर से करने को बाध्य किया जायेगा। शायद हमें बहुत गहराई से समझना होगा कि समस्या क्या है और उसकी जड़ कहां है। कानून बनाकर अभी तक जनता को बराबरी के सभी अधिकार तक नहीं मुहैया करवा पाये हम , शिक्षा और स्वास्थ्य की बात क्या जब बाल मज़दूरी और दहेज का दानव तक विकराल रूप धारण कर चुके हैं। मुख्य न्यायधीश का ये कहना कि न्यायधीशों के पद खाली हैं काफी नहीं है , न्यायपालिका को भी चिंतन करना होगा उसमें खामियां क्या हैं और क्यों हैं। अवमानना की तलवार से कोई समस्या खत्म नहीं होगी , भले लोग देख कर खामोश रहें डर से। काश सभी अपने अपने विशेषाधिकार की लड़ाई से इतर जनता की भलाई की चिंता करते। सत्यमेव जयते , लिखने से सत्य अपराजित नहीं होता जैसा माना जाता है कि सत्य कभी पराजित नहीं होता है। बहुत बार उसको कत्ल कर दिया जाता है ज़िंदा जलाया जाता है बेगुनाहों को और कातिल छूट जाते हैं कानूनी दांव पेच से। फिर भी आज इस विषय पर विचार विमर्श करने की ज़रूरत तो है।

          क्या आपको मालूम है किसी बैंक में कोई नियम है हर सुबह प्रार्थना करने का , जी बैंक ऑफ़ बड़ोदा में ऐसा ही है। मुमकिन है बाकी बैंकों में भी ऐसा हो , इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो ना , हम चलें नेक रस्ते पे हम से भूल कर भी कोई भूल हो ना। आशा की जा सकती है उस का थोड़ा असर तो रहता ही होगा दिन भर कर्मचारियों में। मगर सवाल ये है सिनेमा देखने वालों को ही देशभक्त बनाना बहुत है , यूं  भी आजकल फिल्म देखना काफी महंगा मनोरंजन है और शायद बेहद कम जनता सिनेमा हाल जाती है। सच्चाई और ईमानदारी की आवश्यकता सारे देश में है , तो क्यों नहीं शुरुआत वहीं से की जाये जहां सब से ज़्यादा ज़रूरत है। संसद और विधानसभाओं में कोई किताब  ईमानदारी का सबक सिखाने वाली अगर हर दिन हर अधिवेशन में पढ़ी जाये तो बेईमानी करने वालों को थोड़ी शर्म शायद आ ही जाये। वरना कौन उनको ये पाठ पढ़ा सकता है जो सभी को सबक पढ़ाना नहीं सिखाना अपना अधिकार समझते हैं। बस जनता ने निर्वाचित किया तो जो चाहे करने की छूट मिल गई उनको , इसे लोकराज
कदापि नहीं कह सकते।

          मुमकिन है आपको ध्यान नहीं भी हो सभी सरकारी दफ्तरों में साल में इक दिन ईमानदारी की भ्र्ष्टाचार नहीं करने की रिश्वत नहीं मांगने की बाकायदा शपथ दिलाई जाती है वो भी धूम धाम से समारोह आयोजित करके। नतीजा बताने की ज़रूरत ही नहीं है। जिस देश में सभी खुद को धार्मिक समझते हैं और नियमित मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे जाते हैं , बुरे कर्म छोड़ सद्कर्म करने का उपदेश सुन के आते हैं उस देश में पाप नफरत हिंसा बैर भाव और घिनोने अपराध कैसे हैं। आखिर उन उपदेशों का असर हो भी कैसे जब उपदेशक और धर्म का पाठ पढ़ाने वाले ही लोभ मोह अहंकार ही नहीं अधिक से अधिक चढ़ावा चढ़ने को ही धर्म मान रहे हों , ज़रूरत से अधिक मत जमा करो का उपदेश देकर खुद करोड़ों अरबों जमा करें और उसको इक कारोबार ही बना लें। बचपन में सभी लोग धर्म सभाओं  में कोई न कोई भजन आरती बोलते और सुनते आये हैं , किताबों में भी अच्छाई और भलाई की बातें ही पढ़ाई जाती हैं। इंसानियत का पाठ पढ़ा तो हर किसी ने मगर याद कितनों को रहा है। बड़े होते होते किताबी शिक्षा भुला ज़िंदगी से मिली शिक्षा मन मसितष्क में बैठ जाती है। बच्चे वही समझते और सीखते हैं जो बड़े आचरण करते नज़र आते हैं। चोर से कोई ईमानदारी का सबक नहीं सुनना चाहता।

                चर्चा करने से क्या होगा , सवाल है कि देश  में नैतिकता और ईमानदारी का चलन फिर से शुरू कौन करे और कैसे। अध्यापक और माता पिता पहला पाठ उनको बातों से नहीं अपने आचरण से पढ़ाना होगा। लेखक कथाकार कवि शायर भी विवेक को जागृत करने का दायित्व निभा सकते हैं अपने स्वार्थ को दरकिनार कर निष्पक्ष सच्चाई की बातें लिखकर। बड़े स्तर पर सिनेमा अपना वास्तविक फ़र्ज़ निभा सकता है ऐसे कहानियों पर फ़िल्में बनाकर जो दर्शक को केवल मनोरंजन ही नहीं दें अपितु शिक्षित भी करें। किसी समाजिक सरोकार पर जागरुकता पैदा करें , सिर्फ धन कमाना ही सफलता का पैमाना नहीं हो। खेद की बात है नग्नता और अंधविश्वास को बढ़ावा देने जैसे काम सिनेमा ने किये हैं , टीवी सीरियल भी जैसे बुराई को बढ़ावा देने की दौड़ में लगे हुए हैं। कहने को समाचार चैनेल या अख़बार हैं मगर विज्ञापनों ने सभी कोई अंधा कर दिया है। पत्रकारिता का पतन धर्म और राजनीति की तरह हर सीमा लांघ चुका है।  देश की चिंता किसे है , सभी को अपने अपने हित साधने हैं , मगर किस कीमत पर। नैतिकता कोई बाज़ार से खरीद कर नहीं ली या दी जा सकती औरों को , उसको पालन करने को बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है जो अनुचित नहीं भी कहलाये या गैर कानूनी नहीं भी हो पर अनैतिक हो। देश में चरित्र निर्माण करना शायद नहीं यकीनन बेहद ज़रूरी है। 
 
   अदालत से आवाज़ आती है आपको हमारी बनाई समिति के सामने आना ही होगा। ये क्या है कोई शर्त है चेतावनी है या समझाना चाहते हैं कि ये सोच लो अब आखिरी साया है मोहब्बत ,   इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा। शायर बशीर बद्र जी की ग़ज़ल का शेर है। और ऐसी समिति गठित की है जिनका अभिमत पहले से सत्ता की सोच के पक्ष में है उनको सदस्य बनाया है। चित भी मेरी पट भी मेरी अंटा मेरे बाप का की तरह मामा गवाह भेड़ें अपनी हुईं। इंसाफ की ऐसी मिसाल कभी नहीं देखी पहले किसी ने। बेबसी कह सकते हैं क्योंकि उनको पता चल चुका है सत्ता पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनको यही आता है कि पंचायत का फैसला सर मथे पर परनाला उत्थे दा उत्थे। सरपंच जी की बात कोई नहीं मानता उसको अपनी सरपंची कायम रखनी है।

    

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