वोट चाहिए तो मुझे पढ़ना पड़ेगा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
चुनाव में खड़े थे नेता जी जगह जगह सार्वजनिक स्थान पर इधर उधर हाथ जोड़े विनती कर रहे थे , इक घर का दरवाज़ा ख़ुला देखा तो भीतर चले आए । अपना परिचय दिया साथ में इक घोषणापत्र जिस में अगर विजयी हुए तो कितना कुछ करने का इरादा है लिखा हुआ था , सवाल किया जनाब आप क्या करते हैं तो जवाब मिला कि इक लेखक हैं । नेता जी आदत अनुसार कह गए कोई कार्य हो तो कभी भी आकर मिल सकते हैं । लेखक ने उनका घोषणापत्र देखा अच्छा शानदार आकर्षक लगा तो कहने लगे कि कभी कभी किसी किताब का आवरण और शीर्षक लुभावना लगता है लेकिन जब पढ़ते हैं तो निराशा होती है पहले भी इक प्रत्याशी अपना घोषणापत्र दे गए हैं दोनों को पढ़ कर समझ कर निर्णय किया जाएगा कौन बेहतर है । नेता जी ने कहा क्या अमुक व्यक्ति की बात कर रहे हैं , हां उनकी ही बात है सुनते ही बोले उनका कोई भरोसा नहीं अव्वल दर्जे के झूठे हैं । लेखक बोले अगर आप सच्चे हैं तो बात ही क्या मेरा वोट सच बोलने वाले को ही मिलेगा । चाय पिलाई और जाने लगे नेता जी तो उनको अपनी किताब थमाते हुए बोले कि बिल्कुल जैसा अपने घोषणापत्र बनवाया है मैंने भी अपनी रचनाओं में कैसा आदर्श नेता चाहिए इस पर विस्तार से चर्चा की है । आपको मेरा वोट पाना है तो किताब को पढ़ना होगा और समझ कर मुझे बताना भी होगा कि आपकी क्या राय है । थोड़ा संकोच के साथ नेता जी ने कहा समय मिलते ही अवश्य पढ़ कर आपको फ़ोन पर बताऊंगा । ठीक है तब मुझे भी आपका घोषणापत्र पढ़ने की फुर्सत मिलेगी तब समझ कर निर्धारित किया जाएगा । कुछ उलझन में फंस गए नेता जी सोच कर कहने लगे आपकी बात उचित है मैं आज ही रात सोने से पहले किताब की शुरुआत करता हूं और पढ़ कर चर्चा करता हूं ।
लेखक ने कहा महोदय पहले आगाह कर रहा हूं बिना पढ़े झूठ मत बोलना अन्यथा मुझे झूठ की खूब भली पहचान है । आपको बता देता हूं हम साहित्य प्रेमी इंसान की फ़ितरत को जानने में माहिर होते हैं , हमारे अनुभव हमेशा सबक सिखाते रहते हैं । अख़बार पत्रिका वालों से पुस्तक प्रकाशक तक सभी हमको मधुर बोल से बहलाते हैं लेकिन जब मेहनत का मोल चुकाना होता है तब नज़रें चुराते हैं । मानदेय या अन्य भुगतान की बात क्या जब लेखकीय प्रति तक भेजने की औपचारिकता नहीं निभाते हैं । आपको कभी अपना बही खाता दिखाऊंगा कितनी सैंकड़ों रचनाओं का कोई पारिश्रमिक कभी मिला ही नहीं बस झूठे आश्वासन देते हैं । आप से बात करते मालूम हो जाएगा कि किस रचना को आपने पढ़ा है या सिर्फ शीर्षक देख कर गलत बात बता रहे हैं । लेखक की बात से नेता जी समझ गए कि बुद्धिजीवी लोग कैसे होते हैं , अब कैसे बताते कि पढ़ना कभी उनको अच्छा लगता ही नहीं था और ये किताब पढ़ना उनको चुनाव लड़ने से भी कठिन लग रहा था । बस किसी तरह से बहाना बनाकर निकल लिए थे ।
नेता जी ने अपने दफ़्तर जा कर अपने बड़े नेताओं को इस घटना को विस्तार से बताया , इक वरिष्ठ राजनेता ने कुछ विचार किया और उस लेखक को लाने को इक सहायक को भेजा । आपसे हमारे बड़े नेता मिलना चाहते हैं आग्रह किया है कृपया चलिए , उनको खुद आना चाहिए कोई काम है तो अन्यथा मैं जब कभी मन करेगा आऊंगा मगर कोई निर्धारित नहीं कर सकता ये मेरा स्वभाव है , लेखक का सीधा जवाब था । उस सहायक ने बड़े नेता जी को ये बात फोन पर बताई तो उन्होंने फोन पर ही लेखक से वार्तालाप करने का विकल्प चुना । लेखक से बात कर उन्होंने कहा आपने कीमत बताई है किताब पढ़ कर राय देने पर वोट डालने की लेकिन मुझे लगता है कि आपको इतना मिलना काफ़ी नहीं है । आपको मालूम है कुछ साल पहले जो राज्य की साहित्य अकादमी के निदेशक बनाये गए थे उन्होंने हमारे लिए बहुत ही शानदार भाषण और संदेश लिख लिख कर हमारी शानदार छवि बनाई थी । आजकल उनका कद ऊंचा हो गया है और वो हमारे आलाकमान के चहेते हैं । लेखक ने बताया मुझे सब पता है लेकिन शायद आपको नहीं पता कि मैंने कभी भी किसी की स्तुति करना मंज़ूर नहीं किया चाटुकारिता करना सीखा नहीं खरी खरी बात कहता हूं डंके की चोट पर निडर होकर निष्पक्ष रहकर । धन दौलत नाम शोहरत ईनाम पुरुस्कार की चाहत ही नहीं है कुछ चाहिए तो इक ऐसा समाज जिस में कोई बड़ा छोटा ख़ास आम नहीं हो सभी बराबर हों इंसान बनकर इंसानियत का धर्म निभाएं । सिर्फ इतनी ही कीमत है मेरे लेखन की जो शायद किसी भी राजनेता के पास नहीं है ।
आज़ाद भारत की तस्वीर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
इंसां हों सब ही बराबर जहां , हम सब बनाएंगे इक ऐसा जहां
फूल प्यार के खिले हों चहुंओर , रहेगा नहीं नफरत का धुंवा ।
कहीं किसी पे न हो अत्याचार , राजनीति बने नहीं व्यौपार
शिक्षा स्वास्थ्य सभी अधिकार , जनसेवा का बंद हो बाज़ार ।
हर इक बेटी हो शाहज़ादी , जीने की सभी को मिले आज़ादी
ख़त्म दहेज प्रथा ख़त्म बाल मज़दूरी , बहुत हो चुकी बर्बादी ।
प्रशासन का नहीं हो ऐसा बुरा हाल , बीमार हैं जैसे अस्पताल
अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग नहीं हो इक सुर ताल ।
लूट रहे बन कर देशसेवक सभी के सभी जनता की यही परेशानी
कौन बताए उनको क्या है आज़ादी का महत्व , शहीदों की कहानी ।
भूल गए हैं शायद हम सभी देश और समाज कल्याण का मकसद
फिर से कोई सबक पढ़ाए स्वार्थ छोड़ो फिर मांगता है देश कुर्बानी ।
2 टिप्पणियां:
बुरे फँसे नेता जी..😊👍👌 वास्तविकता से उपजा खरा लेख
सटीक
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