अक्टूबर 06, 2013

POST : 365 कीमत घर की ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

         कीमत घर की ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

   फिर वही पुराना ज़ख्म हरा हो गया है। सालों बाद फिर घर से बेघर होना पड़ रहा है। काश मेरा घर कालोनी की मुख्य सड़क पर न होता , अंदर किसी तंग गली में होता , जहां बाज़ार वाले इतनी बड़ी कीमत न लगा पाते कि मैं उसे बेचने को विवश हो जाता। कितनी मेहनत से कितने प्यार से इस घर को मैंने बनाया था। इसका आँगन , पेड़ पौधे ,हरी हरी बेलें जिन्हें सजाने में वर्षों तक दिन रात लगा रहा हूं। कितने साल लग गये थे मुझे ये छोटा सा घर बनाने में ,एक एक पैसा जमा कर एक एक इंट लगा कर कैसे बनाया था इस घर को ये कोई दूसरा कभी नहीं समझ सकता। आज जो लोग कह रहे हैं कि ये ख़ुशी की बात है जो तुम्हारे घर की कीमत इतनी हो गयी है कि  इस पैसे से तुम नई कालोनी में इस से बहुत बड़ा वा शानदार घर बना सकते या खरीद सकते हो , वे इस बात को नहीं समझ सकते कि मेरे लिये अपना घर क्या है और घर में और मकान में कितना अंतर है। घर बिक सकता है , खरीदा नहीं जा सकता। मकान खरीदना तो आसान है , उसे घर बनाने में उम्र बीत जाती है। अब मेरे पास बाक़ी उम्र ही कितनी है।

             पचास साल का नाता है इस घर से। देश के बंटवारे के बाद विस्थापित होकर जब इस शहर में आये थे तो सोचा भी न था कि कभी कहीं दोबारा अपना घर बना कर फिर से खुशहाल हो रह सकेंगे। फिर गली , मोहल्ला ,पास पड़ोस ,संगी साथी बन जायेंगे। फिर सब मिल जुल कर सुख दुःख बांटेगे , अपनापन नज़र आने लगेगा और धीरे धीरे विस्थापित होने की बात भूल कर जीने लगेंगे। पचास सालों में इस घर में बच्चों की किलकारियां गूंजी हैं , बच्चे खेलते खेलते बड़े हुए हैं , बरातें आईं हैं , डोलियाँ उठी भी  हैं बेटियों की और डोलियाँ आई भी हैं नयी दुल्हनों को लेकर। इस सब की गवाह है इस घर की दीवारें और गलियां। पचास सालों में यहाँ रहने वाले सभी लगने लगा है एक परिवार का हिस्सा हैं हम जैसे। सब के बच्चे अपने लगते हैं , हर घर का आँगन , हर इक खिड़की , इक इक दरवाज़ा पहचानता है हमें , हमारी हर आहट को। गली की एक एक इंट से पहचान है जैसे। क्या अब फिर कभी कहीं ऐसा कोई घर हम सभी बना सकेंगे। आजकल नयी विकसित हो रही आबादी में , जहां किसी को किसी से बात करने तक की फुर्सत नहीं , ऐसा घर कैसे बन सकता है वहां।

       क्यों मेरे इस घर का मोल इतना अधिक हो गया है कि सभी को लगता है इसको बेच देना ही बेहतर है। हम सभी के लगाव की प्यार की अपनेपन की कीमत कुछ भी नहीं। इंट पत्थर और लकड़ी से बने मकान की कीमत क्यों आदमी और उसकी कोमल भावनाओं से ज़्यादा हो गई है जो सभी अपने अपने घर यहाँ से बेच कर किसी दूसरी जगह जाने लगे हैं। पैसे की ताकत ने सब को कितना विवश कर दिया है , आज मुझे भी वही करना पड़ रहा है। कितना सोचा था कि भले बाकी लोग बेच दें मैं कभी नहीं बेचूंगा घर अपना। यहीं जीने यहीं मरने की ख्वाहिश अधूरी ही रहेगी। करते करते पूरी की पूरी कालोनी ने एक बाज़ार का रूप ले लिया है , अब तो यहाँ चैन से रहना मुश्किल लगने लगा है। बाज़ार का शोर ,भीड़ भड़ाका , वाहनों का चोबीस घंटे गुज़रना , इस सब ने क्या से क्या कर दिया है। लगता है अब शांति और चैन नहीं मिलेगा कभी , इतने पैसों से भी हम वो नहीं हासिल कर सकेंगे कभी फिर से। अब वो साहस भी नहीं बचा कि  किसी वीरान जगह को फिर से आबाद कर सकें। कितनी बार कोई घर बनाता रहे और उसको छोड़कर जाने का दर्द सहता रहे।

         दोनों बेटे कहते हैं कि उनको अपने अपने दफ्तर के , अपने कारोबार की जगह के नज़दीक फ्लैट लेना है। बेटी को भी अपना अलग घर बनाना है सास ससुर से अलग जिसमें पति पत्नी रह सकें। मेरी धर्म पत्नी भी हर माँ की तरह सोचती है कि अपना क्या है हम कैसे भी कहीं भी रह लेंगे मगर बच्चों को जो भी चाहिए उनको दिलवा सकें। मैं भी सोचता हूं , कितना जीना है अब , रह लेंगे कहीं भी किसी तरह। बच्चों को उनके अपने घर तो बनवा देते हैं। डीलर हिसाब लगा कर सब समझा गया है , इस एक घर को बेचकर हम तीन फ्लैट खरीद सकते हैं। अब मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा , चाहूं न चाहूं , यही करना ही होगा। हमें प्रसन्नता होगी कि  सब बच्चों के अपने घर बन गये हैं। उन तीनों के फ्लैटों में हम बाकी उम्र शायद यही तलाश करते रहें कि  इनमें हमारा अपना घर कौन सा है। डीलर बता रहा था कि जल्दी ही इन फ्लैटों के भी दाम आसमान को छूने लगेंगे। मेरी तो यही कामना है कि कभी किसी के घर की कीमत इतनी भी न बढ़ जाये कि वो उसमें रह ही न सके , उस अपने घर को बेचने को मज़बूर हो जाये। कम से कम मेरे बच्चों को बेघर होने के दर्द का तो कभी एहसास नहीं हो। दुआ कर रहा हूं। आमीन। 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Uff ...marmik alekh...Visthapan ka dard...Nai soch...Mazboori me ghr bechna...Sab kuch h aalekh m