जो हक़ीक़त नहीं दिखता दिखाई देता जो होता नहीं ( दिलचस्प रोग )
डॉ लोक सेतिया
ये कोई पहेली नहीं है आपको इस की जानकारी होनी बेहद ज़रूरी है , मुझे अभी अभी पता चला तो आपको तुरंत बताना मुनासिब समझा । जल्दी ही पूरी जानकारी विस्तार से दी जाएगी मगर शोध करने के उपरान्त कि इस में कितनी सच्चाई है और कितनी सोशल मीडिया की झूठी अफ़वाह । इक नामुराद रोग है जिस ने देश के सामान्य नागरिक को छोड़ दिया है और बड़े ख़ास वीवीआईपी वर्ग समझे जाने वाले अधिकांश लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है । देखने में भले चंगे तंदरुस्त लगते हैं मगर भीतर से खोखले हो चुके हैं उनकी आन - बान- शान सभी झूठी है वास्तव में उन की दशा बेजान चलते फिरते शरीर की है जिन में दिल की धड़कन से आत्मा की आवाज़ तक जाने कब की मर चुकी है । शासक बन सरकारी अधिकारी बन कर्मचारी बन कर बिना सोचे विचारे व्यवस्था का सत्यानाश करते हैं और दावे करते हैं देश सेवक जनता के कल्याण विकास और समाज कल्याण करने के । लोकतांत्रिक व्यस्था का तमाशा बना दिया है और गांव शहर से महानगर तक असंख्य व्यक्ति राजा बन खुद को जनता का मालिक समझते हैं और चाहते हैं हर कोई उनको सलाम करे उनकी तिजौरी भरने में सहयोगी बने और अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई लुटवाने पर सहमत हो । बदले में अराजकता मनमानी लूट और सत्ता के गुणगान का तमाशा देख तालियां बजा स्वागत करे । देश की बागडोर ऐसे ही असाध्य नामुराद रोग से ग्रस लोगों के हाथ है जिनको वास्तविकता दिखाई नहीं देती मगर किसी सपने की तरह जो वास्तव में नहीं नज़र आता है लेकिन कोई उनको समझा नहीं सकता जैसे सावन के अंधे को चारों तरफ हरियाली दिखाई देती है ।
इक समिति का गठन किया गया इस रोग की वास्तविकता को समझने के लिए । मनोचिकित्सक राजनैतिक विश्लेषक संविधान और न्याय के जानकार शामिल किए गए । शोध करने पर परिणाम चौंकाने वाले सामने आये हैं सत्ता के पदों पर निर्वाचित मनोनीत नियुक्त सभी किसी दीवार पर टांगी हुई तस्वीर की तरह हैं । सब का चेहरा रंग रूप पहनावा लगता अलग अलग है लेकिन आचरण भाषा व्यवहार सभी का मानव की तरह नहीं किसी मशीन या रॉबेट जैसा है । कठपुतली की तरह नाच रहे हैं जाने कौन नचाता है सबको अपनी उंगलियों से बंधे धागे से इशारों पर , फ़िल्मी डायलॉग याद आ गया है सिम्मी ग्रेवाल कहती है कठपुतली करे भी तो क्या धागे किसी और के हाथ में हैं नाचना तो पड़ेगा ही । धन दौलत नाम शोहरत और पद प्रतिष्ठा हासिल करने की खातिर जब आत्मा ईमान और खुद अपनी पहचान तक को गिरवी रखने लगे हैं और बड़ा होना नहीं कहलाना उनका मकसद बन जाये तब वही होता है जब किसी ज़ालिम से रहम की इंसाफ की झूठी उम्मीद का कोई ख़्वाब देखने लगे कोई । देश की जनता का दर्द उसकी समस्याएं संवेदनशील इंसान समझ सकता है वो नहीं जो इंसान होकर भी मशीन बन कर रह गए हैं । आदमी जब तलवार बन गया हो तब उस को क्या खबर जिस किसी के हाथ ने उसे पकड़ा है वो सुरक्षा करता है या बेगुनाह लोगों पर वार कर अपनी सत्ता की हवस महत्वांकाक्षा में अपने विरोधी को सज़ा देना चाहता है , ख़ुदपरस्ती में बाकी सबका अस्तित्व नमो निशान मिटा कर समझता है अमर होकर शासक बना रहता है , मगर कब तक । इक पुरानी ग़ज़ल फिर से पढ़ता हूं । 17 सितंबर 2012 को ब्लॉग पर लिखी हुई है ये बताना आवश्यक है क्योंकि हालात बदले नहीं बदलने होते हैं कोशिश जारी है ।
सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल )
सरकार है , बेकार है , लाचार हैसुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।
फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है ।
रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है ।
जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है ।
इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है ।
हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है ।
ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है ।
है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है ।
अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है ।
1 टिप्पणी:
Bdhiya lekh👌👍
एक टिप्पणी भेजें