जुलाई 28, 2024

POST : 1869 ख़्वाब अधूरा रह गया ( निबंध ) डॉ लोक सेतिया

           ख़्वाब अधूरा रह गया ( निबंध ) डॉ लोक सेतिया  

बड़ी गहरी नींद आधी रात को कभी खुल जाती है और लगता है कोई सुहाना ख़्वाब देख रहे थे जो इक ऐसे मोड़ पर था कि सोचने पर समझ नहीं आता कि आगे क्या होता । दिल चाहता है काश फिर से नींद आये और वही सपना दोबारा नज़र आये आख़िर तक । ज़िंदगी भी कुछ ऐसा ही आधा अधूरा सपना है और हम बस नींद से जाग कर किसी उधेड़ बुन में लगे रहते हैं हमारा अपनी नींद अपने ख़्वाब पर कोई बस नहीं चलता है । सवाल सिर्फ अपना नहीं होता है जाने कौन कौन जुड़ा रहता है ख़्वाबों की दुनिया का विस्तार असीम है । ऐसा भी होता है कि हमको याद ही नहीं रहता वो कौन था जो सपनों में आया था , नहीं ये कोई फ़िल्मी गीत की प्यार की बात नहीं है । शायद सभी को कुछ अजनबी अनजान लोग मिलते हैं सपने में जिनसे कभी मिलने की कोई घटना दिमाग़ में नहीं ध्यान आती है । इक और भी बात होती है बचपन से ही किसी को कोई डरावना ख्वाब दिखाई देता है बार बार बड़े होने पर भूल जाता है लेकिन उसकी इक याद रहती है । बचपन में कहते हैं दादी नानी की कहानियां सुनते सुनते बच्चों को नींद में परियां दिखाई देती हैं मगर सबको हसीन मधुर ख़्वाब नसीब होते नहीं हैं । अपने अपने ख़्वाब सभी के होते हैं हर उम्र में कभी सुनहरे कभी आकाश पर उड़ने जैसे सपने देखना अच्छा लगता है । देश और समाज को लेकर कुछ महान लोग जीवन व्यतीत कर दिया करते हैं , हमारे महान विचारकों ने देश को गुलामी से मुक्त करवा आज़ाद भारत का इक सपना सच करना चाहा था जो अभी तक अधूरा ही नहीं है बल्कि हमने उसको भुला दिया है । आज भी अधिकांश लोगों के लिए समान अवसर और अधिकार सिर्फ इक चाहत है जो पूरी नहीं हो सकती क्योंकि हमारे सत्ताधारी लोगों प्रशासन के अधिकारियों न्यायधीश सुरक्षा को नियुक्त पुलिस सैनिकों को देश और जनता की नहीं सरकार और उस के बदलते आदेश और मनमाने नियम कायदे कानून की पालना संविधान से अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती है । जब इंसान विवेक से निर्णय नहीं लेता तब किसी मशीन की तरह कार्य करता है संवेदनाशून्य होकर । 
 
राजनेता अधिकारी पुलिस न्यायधीश से लेकर उद्योगपति व्यौपारी तमाम धनवान साधन-संपन्न लोग इस सीमा तक स्वार्थी और निष्ठुर हो गए हैं कि उन में मानवीय भावनाओं का अंत हो चुका है शायद ही किसी को आम जनता के दुःख दर्द से कोई सरोकार होता है । भाषण देने से कुछ नहीं हो सकता जब आपका आचरण ही सामान्य वर्ग के विपरीत हो , नागरिक को उचित अधिकार भी हासिल करने को हर दिन इक लड़ाई लड़नी पड़ती है जबकि उच्च वर्ग और शासक वर्ग धनवान वर्ग जो चाहे छीन कर हासिल कर लेता है । कहने को हम कितने ही धर्मों को मानने वाले धार्मिक समाज हैं लेकिन छल कपट धोखा और लूट कर सब कुछ अपने लिए एकत्र करने को शोषण और अन्याय करने में कोई संकोच नहीं करता है । आजकल लगता है जैसे हर बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है वही हमारे समाज और लोकतंत्र का तौर बन गया है । नाम शोहरत दौलत ताकत जितनी बढ़ती जाती है अधिक हासिल करने की हवस उतनी बढ़ती जाती है । ऊंचे से ऊंचे पद पर बैठ कर भी किसी को संतोष नहीं होता है और इक होड़ लगी रहती है सबसे तेज़ सबसे आगे सबसे ऊपर जाना है । 
 
आपका कद आपका चरित्र आपके कार्य आपको खुद जिस ऊंचाई तक पहुंचाते हैं उस से और महान बड़ा दिखाई देने को जितना प्रयास किया जाता है वास्तव में वो इक अपराध होता है । आजकल शोहरत की बुलंदी पर बैठे लोग , कुबेर का ख़ज़ाना एकत्र कर सोने की लंका के मालिक बने लोग , आचरण में सबसे दरिद्र बन गए हैं जैसा धर्म समझाता है कि जिस के पास सब कुछ हो फिर भी और अधिक की चाह रखता हो वो सबसे गरीब होता है । आज सबसे अधिक खेदजनक बात उस बुद्धिजीवी वर्ग की खराब हालत की है जिसको जो करना था समाज को दर्पण दिखाना उचित मार्ग पर चलने को प्रेरित करना वही भटक कर धन दौलत सत्ता शोहरत हासिल करने को शासक सरकार साहूकार का चाटुकार बन गया है , सभी की हालत इक कवि की कविता जैसी है ऊंचाई पर चढ़ कर पर्वत पर खड़े होने से आदमी और भी बौना दिखाई देता है । हम सभी का इक ख़्वाब अधूरा रह गया है लोकतंत्र सामाजिक समानता और मानव कल्याण का कब छूट गया कैसे पता ही नहीं किसी को याद नहीं क्या भविष्य होता क्या हो रहा है । आपका किरदार बौना हो गया है , आखिर में इक ग़ज़ल पेश है । 

कैसे कैसे नसीब देखे हैं  ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कैसे कैसे नसीब देखे हैं
पैसे वाले गरीब देखे हैं ।

हैं फ़िदा खुद ही अपनी सूरत पर
हम ने चेहरे अजीब देखे हैं ।

दोस्तों की न बात कुछ पूछो
दोस्त अक्सर रकीब देखे हैं ।
 
ज़िंदगी  को तलाशने वाले
मौत ही के करीब देखे हैं ।

तोलते लोग जिनको दौलत से
ऐसे भी कम-नसीब देखे हैं ।

राह दुनिया को जो दिखाते हैं
हम ने विरले अदीब देखे हैं ।

खुद जलाते रहे जो घर "तनहा"
ऐसे कुछ बदनसीब देखे हैं ।  

 
 
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