जुलाई 17, 2024

POST : 1866 क़ातिल ही मुंसिफ़ है ( न्याय दिवस ) डॉ लोक सेतिया

    क़ातिल ही मुंसिफ़ है ( न्याय दिवस ) डॉ लोक सेतिया 

 

   मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा ( सुदर्शन फ़ाकिर )  

     इस वर्ष का 17 जुलाई अंतर्राष्ट्रीय न्याय दिवस का थीम है फासलों को मिटाना , सांझेदारी बनाना । 

 

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद , जो नहीं जानते वफ़ा क्या है , सच कहा जाए तो आजकल इंसाफ़ की परिभाषा बदल चुकी है अन्याय करना जब इंसाफ़ कहलाने लगे तब समझ लेना चाहिए कि हम ज़ालिम से ज़ख्म पर मरहम लगाने की झूठी आस लगाए हैं । कौन हैं जो समाज में फासले बढ़ाते हैं , शासक सरकार तथाकथित वीवीआईपी लोग और अमीर साधन संपन्न धनवान लोग जो अमीर बनते ही शोषण कर अथवा सामान्य नागरिक की विवशता का लाभ उठा कर उस से उत्पाद का मनचाहा मोल पाकर । सरकार भी उन पर मेहरबान होती है इनको खुली छूट होती है नियम कानून से मानवता तक को ताक पर रख कर ये कुछ गिने चुने लोग बड़ी बेशर्मी से छल कपट से आर्थिक हिंसा तक सब करते हैं । इतना सब करने पर भी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती न ही इनके लिबास पर कोई दाग़ क्या छींटा भी नज़र आता है । अपने अपकर्मों को ये सभी पैसे सत्ता ताकत वाले धनवान लोग धार्मिक अनुष्ठान दान इत्यादि कर ढक लिया करते हैं । अमीर गरीब शासक और आम नागरिक की दूरी घटाना उनको कैसे मंज़ूर हो सकता है बल्कि ये तो बड़े छोटे ख़ास आम की खाई और अधिक चौड़ा और गहरा करने को किसी भी सीमा तक जाकर समाज से खिलवाड़ कर सकते हैं । राजनेता ही नहीं अधिकारी से लेकर बड़े बड़े खिलाड़ी अभिनेता उद्योगपति पैसे ताकत वाले दिखावा समाज सेवा का करते हैं भाषण देते हैं जबकि आचरण बिल्कुल विपरीत होता है , किसी साधारण इंसान से मिलना तो दूर इनको उनकी तरफ देखना भी पसंद नहीं है । आज भी यही लोग और कानून व्यवस्था न्याय की कुर्सी पर बैठे बड़ी बड़ी बातें करेंगे सभाओं में जबकि ये उनकी कठोर सोच और समझ ही है जिस से देश में न्याय पर भरोसा घटता ही नहीं जा रहा अपितु अब निराश हो गए हैं लोग । इनकी कथनी और करनी एक समान नहीं है जैसे कोई समाज में शराफ़त का मुखौटा लगाए हुए जीवन में गुनाह करने से कोई संकोच नहीं करता हो । हज़ारों करोड़ की बर्बादी उनके  आयोजन सभाओं योजनाओं प्रचार प्रसार पर की जाती है जिसका उपयोग समाज के उत्थान पर की जानी चाहिए । लेकिन इनकी बेशर्मी की सीमा ही नहीं है क्योंकि इतने अन्याय ज़ुल्म कर के भी ये आपको कितना कुछ मिल रहा है समझा कर तालियां बजवाते हैं । धर्म उपदेशक भी इनके सामने अपना सर झुकाते हैं हमको संचय नहीं करने की कथा प्रवचन सुनाने वाले खुद कितना जमा किया किसलिए किया कभी नहीं बताते हैं । आपको अजीब लगा क्या न्याय दिवस से इन बातों का क्या मतलब है तो आपको अर्थशास्त्र का साधरण सा नियम बताते हैं , अधिकांश लोग इसी कारण शोषित वंचित बदहाल बेहाल भूखे गरीब हैं ये लोग उनके हिस्से का सब किसी न किसी तरह छीनकर खा जाते हैं । ये जब भी जो भी दिन मनाते हैं हालात से नज़रें चुराते हैं झूठ बोलकर खुद अपना ही राग गाते हैं ।  ये क़त्ल भी करते हैं और शोकसभा में आंसू भी बहाते हैं वास्तव में खुद हंसते है सभी को रुलाते हैं । 
 
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