जुलाई 16, 2024

POST : 1865 ये दुनिया ये महफ़िल ( खाना - ख़ज़ाना ) डॉ लोक सेतिया

  ये दुनिया ये महफ़िल  ( खाना - ख़ज़ाना  ) डॉ लोक सेतिया 

महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।

हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।

मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।

हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।

हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।   
 
 कोई भी किसी से कम नहीं है , किसी को भी कोई ग़म नहीं , सब  हमराज़ हैं अपने  , अपना कोई भी हमदम नहीं । सितम है जश्न बहार का पर झूठे ऐतबार का है , ये करिश्मा कारोबार का है , शायद ख़त्म नहीं होने वाले इंतिज़ार का है ।  छोटा नहीं यहां कोई शख़्स  , हर कोई सबसे बड़ा होने का तमगा लगाए था , ध्यान सभी का था उसकी तरफ जो इस महफ़िल को सजा कर सभी की औकात समझाए था । द्वार पर खड़ा था लेकिन कोई नहीं जानता कौन कितना बड़ा था कौन छोटा नहीं इस ज़िद पर अड़ा था । भीड़ में सभी लोग अकेले अकेले थे दुनिया जहान के हर किसी के सौ झमेले थे । कुबेर का खज़ाना जिसको मिल गया था इक नगर सोने का बना साथ पाया था दिल फिर भी नहीं माना किसी को देख मचल कचल गया था । दौलत के सभी पुजारी बड़ी शान से चले आये पैसा ख़ुदा है मानकर कदमों में सर झुकाये , कुछ लोग जाने क्यों बुलाने पर भी नहीं आये उनकी कमी खल रही थी दिल चाहता था बिना मनाये काश सभी मान जाएं आबरू को कैसे बचाएं दुनिया को किस तरह समझाएं थमती नहीं गर्म हवाएं । सब ख़ाली हाथ लौटे झोली भरी हुई थी सोचा नहीं था ऐसा दिल ही दिल में बहुत पछताये । 
 
कुछ दिन कुछ महीने का खेल तमाशा था आकाश ज़मीं पर कैसे चला आया कोई नहीं समझा वो था किसी बादल का आवारा साया जिस ने सच को छुपाया झूठ खुद अपने आप पे फिरता था इतराया । कितना बड़ा ख़ज़ाना जलाया था राख़ की चाहत में जब राख का ढेर छू कर देखा कोई चिंगारी बची थी अपना हाथ खुद जलाया । क्या बताएं कौन नाचा किस ने किस किस को नचाया मेरे अंगने में तेरा काम क्या कोई नहीं बता सका सवाल सुनते ही सीस को झुकाया करोड़पति से शानदार खेल ये है समझ आया । सभी अपने घर पर राजा दरबार में सवाली सब जानते है किस किस की जेब कैसे काटी , मांगी सभी ने थाली सोने चांदी वाली पर भूख कैसे मिटती बजाते रहे ताली सब भरा मगर ख़ाली ख़ाली । बुझ चुकी आग की बची राख की अलग बात थी दुल्हा दुल्हन बैंड बाजा बरात थी पिया मिलन की आस थी चांदनी साथ थी ।  
 
 
  पैसे का सब खेल है शोहरत की झूठी माया है हर किसी ने मेरे यार की शादी है लगता है जैसे सारे संसार की शादी है गीत की धुन पर नाचकर दिखाया है । अर्थ हर बात का समझ आया है , धर्म काम मोक्ष योग कला खेल राजनीति कौन है जो नहीं शामिल बरात में , खोया है खुद को तभी सब कुछ हाथ आया है । साकी खुद मयकदा बन सभी की प्यास बुझाता है कौन करीब कौन दूर है जाम से जाम टकराया है । हमको बिना पिए नशा छाया है सूरज को क्यों पसीना आया है । इक आईनाख़ाने की बड़ी चर्चा है शीशे का महल बनवाया है सब को सब दिखाई देता है चेहरा जिस ने छुपाया है आईना भी शर्माया है । शायद ये किसी जादूगर का कोई करिश्मा है देखने वालों को अपना गुज़रा ज़माना नज़र आया है , सच और झूठ जुड़वां भाई हैं गले से एक दूजे को लगाया है । कोई अमर्त्य सेन कहीं छुप कर खड़ा है अर्थव्यस्था को समझ रहा है सभी ने उसको भुलाया है भारत रत्न है नोबेल पुरुस्कार भी पाया है लेकिन उसका जीवन जिस मकसद की खातिर बिताया है देश समाज को नहीं भाया है । असमानता भेदभाव अन्याय लूट खसूट इतना अधिक बढ़ाया है कि कोई हिसाब नहीं याद सब कुछ मगर इंसानियत शराफ़त को भुला कर इक ऐसा समाज बनाया है जिस में रूह नहीं जिस्म भी नहीं सिर्फ इक धुंधला सा छाया हुआ साया है । कुछ भी नहीं पढ़ने को रहा लिखा था जितना आज सब मिटाया है ।
 
 भयावह है अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई - Sarita Magazine
 

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