जुलाई 08, 2024

POST : 1859 की इनायत ठुकरा कर मुझे ( परायापन ) डॉ लोक सेतिया

      की इनायत ठुकरा कर मुझे ( परायापन ) डॉ लोक सेतिया  

दिल नाहक उदास रहता था ये सोच कर कि हर शख़्स मुझे ठोकर लगा कर चला जाता है काश कोई मुझे अपना बनाता गले से लगाता । आज ख़्याल आया ज़हन में इक सवाल आया ऐसी भी बात नहीं थी दुनिया की ठोकर खाने में किस लिए कोई मलाल आया । भला इस ज़माने में कौन किसी को लेकर चिंता करता है हर कोई खुद अपने लिए चाह रखता है आह भरता है अपनापन प्यार न सही मुझे सभी ने अपनी नफ़रत के तो क़ाबिल समझा । हर किसी पर निगाह नहीं जाती दुनिया वालों की पसंद नहीं किया तो कोई बात नहीं बड़ी हिक़ारत भरी नज़रों से देखा यही क्या कम है । सितम भी अपना समझ करते होंगे शायद कभी मोहब्बत की आरज़ू भी करते होंगे कभी तो लोग सितम कर के पछताते भी हों , तन्हाई में मुझे दिल से लगाते भी हों । हां मैंने हर किसी पर ऐतबार किया है ख़ुद को छोड़ सभी ज़माने वालों से बेइंतिहा प्यार किया है । लंबा है ज़िंदगी का सफ़र कोई आख़िर तक साथ निभाता कैसे रास्ते बदलते हैं दोहरे पर सब बिछुड़ जाते हैं गुज़री राहों को वापस मोड़ कर कोई लाता कैसे अलग अलग राहों की फिर मिलाता कैसे । कभी जिन राहों पर चले थे साथ कारवां बनकर बिखरे हुए तिनकों को अंचल में सजाता कैसे , दर्द में गैर के अश्क़ बहाता है कौन विरह की रात मिलन के गीत गुनगुनाता कौन है । घर छोड़ कर गया कभी लौट भी आये मुमकिन है दुनिया ही छोड़ गए जो उनकी राह देखना फ़ज़ूल है बीता वक़्त फिर नहीं आएगा ये समझाने भी आता कौन है । भूले बिसरे नग्में भूली बिसरी यादें कुछ ख़त कुछ तस्वीरें कितना अनमोल ख़ज़ाना है याद नहीं करते जो भुलाता कौन है ये कागज़ नहीं हैं आरज़ूएं हैं उन को जलाता कौन है । जाने क्यों किसी के कदमों की आहट सुनाई देती है नज़र जाती है दरवाज़ा ख़ुला है कब से आता जाता कौन है । 
 
ऐसा नहीं कि मुझे ये समझ ही नहीं आया कि सभी को मुझसे अनगिनत शिकायत हैं तो किस कारण से हैं । हर कोई मुझसे चाहता था जैसा हो जाना मुझे स्वीकार ही नहीं था बन सकता भी कैसे । हैरान थे कोई नहीं मुझे समझता मेरा साथ निभाता फिर भी मैं अपने हालात से परेशान होते हुए भी घबराता नहीं कभी किसी के सामने जाकर प्यार की अपनत्व की ख़ैरात नहीं मांगता अपना दुःख दर्द नहीं सांझा करता किसी से कभी । अपनी निराशा अपनी तन्हाईयां अपना खालीपन खुद ही मिटा लेता हूं कभी छुप कर रो लेता कभी महफ़िल में हंस मुस्कुरा लेता हूं । बोझ ज़िंदगी का खुद अपने कंधों पर उठा कर हौंसलों को आज़मा लेता हूं । ज़ुल्म सहना सीख लिया है अपने ज़ख्मों को खुद सहला लेता हूं कभी तक कर कुछ पल रुकता हूं फिर अपने कदम आगे बढ़ा लेता हूं कोई मंज़िल का पता है न ही राह से वाक़िफ़ हूं अपनी नई राहें नित बना लेता हूं । कौन इस दुनिया में अकेला नहीं है ये ज़िंदगी भर का मेला नहीं है चार दिन की बात है उजाला है चाहे अंधेरी रात है । मौसम मौसम की बात है पतझड़ सावन बसंत बहार हमने किया सभी से प्यार करते हैं हमेशा इंतज़ार ।   
 

                 कुछ अनकहे अल्फ़ाज़ पुरानी डायरी से प्रस्तुत हैं :- 

पलकों पे अश्क़ लेकर इंतिज़ार करते रहते हैं हम
काश मिल जाए तेरा पैग़ाम अश्क़ सूख जाने तक ।   
 
फिर आज तेरी याद आई है उदासी सी छाई है 
कहीं से किसी ने आवाज़ दे कर पुकारा मुझको ।
 
ज़रा सी आहट पर जो उठ जाती हैं दोस्त क्या 
अभी भी मेरे आने का इंतिज़ार तेरी नज़रों को है । 
 
ये दोस्ती ये प्यार न रास आएगा हमें ही 
वर्ना ये सारा जहां तो बेवफ़ा होता नहीं । 
 
इक चाह नहीं होगी पूरी कोई तो अपना हो 
लगता है हर ख़ुशी मेरी जैसे कि सपना हो ।   
 

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