जुलाई 07, 2024

POST : 1858 पत्थर के इंसान सोने-चांदी के परिधान ( मेरा देश महान ) डॉ लोक सेतिया

पत्थर के इंसान सोने-चांदी के परिधान ( मेरा देश महान ) डॉ लोक सेतिया 

ऊपरवाला भी अजीब खिलाड़ी है किसी को नज़र ही नहीं देता दुनिया का नज़ारा देखने की , उनको कुछ भी दिखाई नहीं देता , धन दौलत सोना चांदी के अंबार की ऊंची दीवारें उनको कैदी बनाए रखती हैं । मिलता है इतना कि कोई हिसाब नहीं मगर सब का सही इस्तेमाल कैसे करना है उनको सूझता ही नहीं । मिट्टी से खेलते तो मिट्टी की खुशबू का पता होता बेजान धातुओं का रंग होता है चमक होती है कोई खुशबू नहीं होती है । जब संवेदनाएं ही नहीं होती तब बदन आदमी औरत का होने पर भी आत्मा रूह उस में बचती रहती नहीं बस चाहतें ख़त्म नहीं होती ज़िंदगी का ख़ालीपन मौत तक भरता नहीं है । बादशाह शासक अमीर पैसे और ताकत वाले लोग दुःख दर्द को जानते ही नहीं इंसानियत उनको छोड़ चली जाती है जो सिर्फ और सिर्फ खुद की खातिर अधिक से अधिक जमा करते रहते हैं । कोई शाहजहां की तरह अपनी महबूबा को ताजमहल से कीमती उपहार जीवन में दे कर समझता है उस से महंगा इश्क़ कोई इस दुनिया में शायद ही करेगा । अब प्यार मुहब्बत इसी तरह दौलत के तराज़ू में तोलते हैं अन्यथा दिल विल प्यार व्यार अमीर लोगों को कभी किसी काम की चीज़ नहीं लगती है । आधुनिक अर्थव्यस्था में पुराने ज़माने की चाहत को नासमझी नादानी मानते हैं इतनी फुर्सत किसे है कौन किसी का इंतिज़ार करे दिल को बेकरार करे , व्यौपार करे कारोबार करे एक को दो को चार सौ को हज़ार करे । 
 
ईश्वर ने सभी कुछ बनाया है सब की आवश्यकताओं की पूर्ति को बहुत है लेकिन किसी की अथवा कुछ लोगों की हवस को पूर्ण करने को धरती आकाश क्या पाताल तक कम पड़ते हैं । इंसान बस माटी का खिलौना है माटी से बनना माटी में मिलना है लेकिन बदनसीब होते हैं जिनको माटी क्या क़फ़न तक नसीब नहीं होता आखिर में चाहे इस जिस्म को कितने सुंदर शानदार महंगे लिबास पहनाओ जितना चाहे भरपेट खाओ । हर चीज़ की सीमा होती है उपयोग की उस से अधिक का इस्तेमाल बर्बादी कहलाता है , बड़ी शान वाले बर्बादी को भी समझते हैं उनकी बड़ी औकात है । ये कुछ ऐसे बेदर्द लोगों की सच्ची बात है लोग प्यासे हैं उनके घर पैसों की बरसात है । अपनी नेक कमाई से नहीं तमाम अन्य की हिस्से की सभी चीज़ों की लूट और छीन कर हासिल की धन दौलत से झूठी शान ओ शौकत की ज़िंदगी जीना किसी धर्म में उचित नहीं बतलाया गया है । ईश्वर जिनको अधिक देता है उनको बांटना होता है उनको जिनके पास कुछ भी नहीं है । 
 

रहीम और गंगभाट का संवाद  :-

 इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
अर्थात देने वाला तो कोई और है ईश्वर है जिसने मुझे समर्थ बनाया इक माध्यम की तरह , दाता तो वही है पर लोग समझते कि मैं दे रहा तभी मेरे नयन झुके रहते हैं । आज तक किसी नेता ने देश या जनता को दिया कुछ भी नहीं सत्ता मिलते ही शाही अंदाज़ से रहते हैं और गरीबी का उपहास करते हैं । कुछ लोग जो किसी तरह से धनवान रईस साहूकार बन गए उनको देखते हैं तो आडंबर पर पैसा बर्बाद कर गर्व का अनुभव करते हैं जो वास्तव में देश धर्म को समझते तो शर्म की बात लगती । उस पर कुछ धन दान देकर ढिंढोरा पीटते हैं बिना ये सोचे समझे की वो सब हासिल कैसे किया गया है ।

 ये नहीं आदमी न हैं ये कोई भगवान , इनकी कुछ और ही है पहचान इनसे डरते हैं इंसान इनसे घबराते हैं दुनिया भर के सभी शैतान । दुनिया होती है हैरान देख देख इनके परिधान लगते हैं चमकता सोना सजे हैं हीरे जवाहरात मोती लेकिन हैं कोयले की खान बस ये हैं चलती फिरती बाज़ार की इक दुकान । बिका हुआ है जिनका सब का सब भीतर का सामान , कोई दिल नहीं कोई धड़कन नहीं कुछ भी नहीं इनको होता कभी एहसास बस कोई मशीन हैं जैसे रहना बचकर ख़तरा बड़ा है इनके पास । पागलपन की बात मत पूछो दिन लगते हैं इनको रात , चैन की नींद ज़िंदगी का सुकून लगते हैं इनको कोई बकवास इनको नदियां और समंदर लगते हैं ख़ुद से छोटे बुझती नहीं कभी इनकी गहरी प्यास । ज़िंदा नहीं रूह नहीं है इन में मरना फिर भी लाज़िम होगा चाहतें हैं शाहंशाह जैसा आख़िरी अपना अंदाज़ , क़फ़न सिला हो सोने का जिस्म भी उनका बेशकीमती बन जाए भले ही राख । प्यार मोहब्बत ये नहीं समझते लेकिन अजब है इनकी कहानी खुद ही ताजमहल बनवाना है कहलाना है इक महादानी इनकी सोच पर होगी हैरानी , इनको अभी धन दौलत जमा करनी है अज्ञानता की सीमा तक दौड़ना है मृगतृष्णा में नज़र आता है रेत भी चमकती जैसे पानी । पढ़ी थी बचपन में इक कहानी इक था राजा ,  थी और इक रानी कठपुतली का खेल था शतरंजी चाल थी सोलह बरस की उम्र भी अभिलाषा सौ साल की तकदीर का था भरोसा आखिर ज़िंदगी दे गई धोखा बीच सफ़र में नैया डूबी , सब कुछ था नज़र के सामने सभी लोग खड़े थे दूर किनारे , हाथ भी छूटे आस भी टूटी किसको कौन क्या पुकारे सभी सहारे इस जीवन की बाज़ी को जीता कोई नहीं सभी हारे । 
 
आज़ादी मिली संविधान सबको बराबरी का हक़ देने की बात करता है , अजब लोकतंत्र है कोई महलों में कोई झौंपड़ी भी नहीं फुटपाथ पर रहता है । गरीब आदमी इस ज़ुल्म को ख़ामोशी से सहता है , सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान कहां है इक शायर कहता है । ये कैसा विधान है कुछ घरों के पास आधा जहान है जिसको आप नाम देते हैं शानदार गर्व करते हैं आधी आबादी को मिलता आखिर दो ग़ज़ ज़मीन जहां क़ब्रिस्तान है ।    आपको महल किसी की निशानी लगते हैं जो वास्तव में ज़ुल्मों की कोई एक नहीं कितनी दास्तानें होते हैं खंडहर होना ही है इक दिन । इतिहास झूठा भी होता है हक़ीक़त सामने नहीं दिखाई देती तब भी कोई शायर साहिर लुधियानवी कोई नज़्म ताजमहल लिख कर वास्तविकता उजागर कर देता है । हुए मर के हम जो रुसवा , हुए क्यों न गर्क़ ए दरिया । न कभी जनाज़ा उठता , न कहीं मज़ार होता । ग़ालिब कहते हैं कि रुसवाई होती है मरने बाद लगता है कैसे शख़्स थे क्या करना था क्या करते रहे ज़िंदगी भर रोज़ जो लोग मरते रहे । धनवान लोगों ने शासक वर्ग राजनेताओं प्रशासन सभी ने देश को बर्बाद किया है इल्ज़ाम दिया है कि जनसंख्या अधिक है सदियां लगेंगी सब बनाने में , ये झूठ है कभी कोशिश ही नहीं की जाती जो लोग नीचे हैं पीछे हैं उनको ऊपर लाने आगे बढ़ाने की क्योंकि उनकी शान शौकत गरीब को और गरीब बनाने से ही बनी रह सकती है ।

मिर्ज़ा ग़ालिब पुण्‍यतिथि विशेष : "मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो  गईं" – News18 हिंदी
 

 
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क़ ए दरिया। न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।। ग़ालिब
 

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