मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा। मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है। ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं। व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है। मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं। साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है। व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं।
दिसंबर 29, 2022
क़िताब की दर्दनाक दास्तां ( तिरछी नज़र ) डॉ लोक सेतिया
दिसंबर 16, 2022
किताबें मेरी ख़त हैं दोस्ती वाले ( अंदाज़ अलग है ) डॉ लोक सेतिया
किताबें मेरी ख़त हैं दोस्ती वाले ( अंदाज़ अलग है ) डॉ लोक सेतिया
जनाब साक़िब लखनवी अज़ीम शायर हैं कहते हैं
' ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था , हमीं सो गये दास्तां कहते कहते '।
कोई पचास साल पहले कही थी मैंने पहली ग़ज़ल
' किसे हम दास्तां अपनी सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं ।
ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।
हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।
मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।
हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।
हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।
दिसंबर 12, 2022
भूल गए कलम की बात लिखना ( जुर्म-बेलज़्ज़त ) डॉ लोक सेतिया
भूल गए कलम की बात लिखना ( जुर्म-बेलज़्ज़त ) डॉ लोक सेतिया
दिसंबर 11, 2022
बनाकर खुद इस को परेशान ( इंसान भगवान ) डॉ लोक सेतिया
बनाकर खुद इस को परेशान ( इंसान भगवान ) डॉ लोक सेतिया
दिसंबर 03, 2022
लेखक-पुस्तक संवाद ( किताब की आत्मकथा ) डॉ लोक सेतिया
लेखक-पुस्तक संवाद ( किताब की आत्मकथा ) डॉ लोक सेतिया
नवंबर 28, 2022
बेजान बेज़ुबान की बेबसी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बेजान बेज़ुबान की बेबसी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बड़े लोग ( नज़्म )
बड़े लोग बड़े छोटे होते हैंकहते हैं कुछ
समझ आता है और
आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं।
इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे
किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं।
दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे
ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं।
नवंबर 17, 2022
भारत सरकार को ज़रूरत है ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया
भारत सरकार को ज़रूरत है ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया
नवंबर 08, 2022
काले धन की आत्मकथा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
काले धन की आत्मकथा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
नवंबर 07, 2022
सोच विचार कर , भीड़ बनकर नहीं ( सही-गलत निर्णय ) डॉ लोक सेतिया
सोच विचार कर , भीड़ बनकर नहीं ( सही-गलत निर्णय ) डॉ लोक सेतिया
बात निकली तो सामाजिक राजनैतिक से आगे साहित्य पर भी हुई । साहित्य के भव्य आयोजन का अर्थ उत्कृष्ट साहित्य को बढ़ावा देना नहीं होता है । साहित्य सृजन करने वाले लेखकों को अपने समय की देश समाज की सही तस्वीर दिखलानी चाहिए जबकि कुछ जाने माने ख़ास लोगों ने इस में दोहरे मापदंड अपनाए हैं और धन दौलत नाम शोहरत सत्ता से नज़दीकी हासिल करने को वास्तविकता को उजागर करने का कर्तव्य नहीं निभाया है । उनकी फिल्मों गीतों कथाओं कहानियों ने आम दर्शक को भटकाने का कार्य किया है , आधा सच आधा झूठ मिलाकर वास्तविकता को अफ़साना बना दिया है और जो हक़ीक़त नहीं उसको वास्तविकता बनाकर अपनी लेखनी के साथ अन्याय किया है । सच नहीं लिख सकती जो कलम उसको कागज़ काले करना छोड़ना बेहतर होगा । शिक्षित वर्ग को केवल अपने हित की ही नहीं समाजिक सरोकार की भी चिंता होनी चाहिए और संवेदनशीलता पूर्वक न कि औपचरिक हल्की फुलकी बातें करने तक । काश उनको ध्यान आये कि देश गुलामी की जंज़ीरों से ही नहीं सामाजिक आडंबरों और दिखावे की कुरीतियों से अभी मुक्त नहीं हुआ है और किसी भी राजनेता दल या व्यक्ति की चाटुकारिता स्वयं में इक समस्या है गंभीर सवालात खड़े करती हुई । ग़ालिब के अप्फाज़ में नींद क्यों रात भर नहीं आती । बदलाव होना चाहिए मगर कैसा ये सवाल अवश्य समझना सोचना होगा , सड़कों इमारतों संस्थाओं के नाम बदलने से देश की तस्वीर नहीं बदलेगी न तकदीर ही बदल सकती है ।
नवंबर 01, 2022
बिना शर्त कुछ नहीं कुछ भी ( ज़िंदगी ) डॉ लोक सेतिया
बिना शर्त कुछ नहीं कुछ भी ( ज़िंदगी ) डॉ लोक सेतिया
अक्टूबर 28, 2022
मुफ़लिसी पर गर्व था खैरात ने रुसवा किया ( जज़्बात ) डॉ लोक सेतिया
इक नई सौगात देने लगे।
इश्क़ करना आपको आ गया
अब वही जज़्बात देने लगे।
रौशनी का नाम देकर हमें
फिर अंधेरी रात देने लगे।
और भी ज़ालिम यहां पर हुए
आप सबको मात देने लगे।
बादलों को तरसती रेत को
धूप की बरसात देने लगे।
तोड़कर कसमें सभी प्यार की
एक झूठी बात देने लगे।
जानते सब लोग "तनहा" यहां
किलिये ये दात देने लगे।
अक्टूबर 24, 2022
ओ रौशनी वालो ( अंधकार की आवाज़ ) डॉ लोक सेतिया
ओ रौशनी वालो ( अंधकार की आवाज़ )
डॉ लोक सेतिया
बेचैनी ( नज़्म )
पढ़ कर रोज़ खबर कोईमन फिर हो जाता है उदास।
कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस।
कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास।
कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास।
चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास।
सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास।
जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास।
बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास।
कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास।
अक्टूबर 11, 2022
POST : 1601 इक ख़्वाब जो हक़ीक़त नहीं बन सका ( ज़िंदगी की मज़बूरी ) डॉ लोक सेतिया
इक ख़्वाब जो हक़ीक़त नहीं बन सका ( ज़िंदगी की मज़बूरी )
डॉ लोक सेतिया
सपनों में जीना ( कविता )
जीने के लिये
शीतल हवाओं के
सपने देखे
तपती झुलसाती लू में ।
फूलों और बहारों के
सपने देखे
कांटों से छलनी था
जब बदन
मुस्कुराता रहा
सपनों में
रुलाती रही ज़िंदगी ।
भूख से तड़पते हुए
सपने देखे
जी भर खाने के
प्यार सम्मान के
सपने देखे
जब मिला
तिरस्कार और ठोकरें ।
महल बनाया सपनों में
जब नहीं रहा बाकी
झोपड़ी का भी निशां
राम राज्य का देखा सपना
जब आये नज़र
हर तरफ ही रावण ।
आतंक और दहशत में रह के
देखे प्यार इंसानियत
भाई चारे के ख़्वाब
लगा कर पंख उड़ा गगन में
जब नहीं चल पा रहा था
पांव के छालों से ।
भेदभाव की ऊंची दीवारों में
देखे सदभाव समानता के सपने
आशा के सपने
संजोए निराशा में
अमृत समझ पीता रहा विष
मुझे है इंतज़ार बसंत का
समाप्त नहीं हो रहा
पतझड़ का मौसम ।
मुझे समझाने लगे हैं सभी
छोड़ सपने देखा करूं वास्तविकता
सब की तरह कर लूं स्वीकार
जो भी जैसा भी है ये समाज
कहते हैं सब लोग
नहीं बदलेगा कुछ भी
मेरे चाहने से ।
बढ़ता ही रहेगा अंतर ,
बड़े छोटे ,
अमीर गरीब के बीच ,
और बढ़ती जाएंगी ,
दिवारें नफरत की ,
दूभर हो जाएगा जीना भी ,
नहीं बचा सकता कोई भी ,
जब सब क़त्ल ,
कर रहे इंसानियत का ।
मगर मैं नहीं समझना चाहता ,
यथार्थ की सारी ये बातें ,
चाहता हूं देखता रहूं ,
सदा प्यार भरी ,
मधुर कल्पनाओं के सपने ,
क्योंकि यही है मेरे लिये ,
जीने का सहारा और विश्वास ।
सच हुए सपने ( कविता )
सपने तो सपने होते हैंदेखते हैं सभी सपने
मैंने भी देखे थे कुछ
प्यार वाले सपने।
कोई अपना हो
हमराज़ भी हो
हमसफ़र भी हो
हमज़ुबां भी हो
चाहे पास हो
चाहे कहीं दूर हो
हो मगर दिल के
बहत ही करीब
जिसको पाकर
संवर जाये मेरा
बिगड़ा हुआ नसीब ।
सब दुनिया वाले
यही कहते थे
किस दुनिया में
रहता हूं मैं अब तक
और किस दुनिया को
ढूंढता फिरता हूं
ऐसी दुनिया जहां
कोई स्वार्थ न हो
कोई बंधन न हो
और हो सच्चा प्यार
अपनापन भरोसा
अटूट विश्वास इक दूजे पर ।
मगर मेरा विश्वास
मेरा सपना सच किया है
तुमने ऐ दोस्त ऐ हमदम
जी उठा हूं जैसे फिर से
निकल कर जीवन की निराशाओं से
तैर रहा आशाओं के समंदर में ।
तुम्हारा हाथ थाम कर
मिलेगी अब ज़रूर
उस पार मेरी मंज़िल
इक सपनों का होगा
महल वहीं कहीं
जहां होगा अपना हर कोई
मुहब्बत वाला इक घर
जिसकी खिड़की दरवाज़े
दीवारें और छत भी
बने होंगे प्यार से
स्वर्ग सा सुंदर होगा
अपना छोटा सा आशियाना ।
सितंबर 27, 2022
POST : 1600 अंधकार की निशानियां हैं , ये चकाचौंध रौशनियां ( इंसानियत के खण्डर ) डॉ लोक सेतिया
अंधकार की निशानियां हैं , ये चकाचौंध रौशनियां ( इंसानियत के खण्डर )
डॉ लोक सेतिया
सितंबर 13, 2022
हर ख़ुशी हमारे लिए ( राज़ की बात नहीं ) डॉ लोक सेतिया
हर ख़ुशी हमारे लिए ( राज़ की बात नहीं ) डॉ लोक सेतिया
जीने के मुझे पहले अधिकार दे दो , मरने की फिर सज़ाएं सौ बार दे दो।
सितंबर 12, 2022
एहसासों के फूल ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : अमृत लाल मदान
एहसासों के फूल ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : अमृत लाल मदान
रचनाकार कवि : डॉ लोक सेतिया
सितंबर 06, 2022
कौन समझेगा कहानी मेरी ( कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया
कौन समझेगा कहानी मेरी ( कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया
फूलों के जिसे पैगाम दिये ( ग़ज़ल )
फूलों के जिसे पैग़ाम दियेउसने हमें ज़हर के जाम दिये ।
मेरे अपनों ने ज़ख़्म मुझे
सूली पे चढ़ा कर खुद हमको
हम पर ही सभी इल्ज़ाम दिये ।
कल तक था हमारा दोस्त वही
ग़म सब जिसने ईनाम दिये ।
पागल समझा , दीवाना कहा
दुनिया ने यही कुछ नाम दिये ।
हर दर्द दिया , यारों ने हमें
कुछ ख़ास दिये , कुछ आम दिये ।
हीरे थे कई , मोती थे कई
" तनहा " ने सभी बेदाम दिये ।
सितंबर 05, 2022
सोशल मीडिया की पढ़ाई , शिक्षक दिवस है भाई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
सोशल मीडिया की पढ़ाई , शिक्षक दिवस है भाई ( हास-परिहास )
डॉ लोक सेतिया
झूठे ख़्वाब ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
जीवन भर महसूस होता रहा
अकेलापन लेकिन समझा यही
मुझे चाहते हैं सभी लोग यहां ।
हादिसे नहीं इत्तेफ़ाक़ नहीं कोई
छोड़ जाते हैं तोड़ जाते नाते सब
अचानक बदल रास्ता कब कहां ।
कौन साथ कौन बिछुड़ा खबर नहीं
भीड़ भरे बाज़ार में ढूंढें कैसे भला
धूल ही धूल कदमों के नहीं निशां ।
सबने ज़मीन से नाता तोड़ लिया
और सपनों का बनाया इक आस्मां