सोच विचार कर , भीड़ बनकर नहीं ( सही-गलत निर्णय ) डॉ लोक सेतिया
इधर तमाम लोग समझते हैं कि मौजूदा शासक पुराने सत्ता के उच्च पदों पर रहे राजनेताओं नायकों के नाम सड़कों भवनों पर लिखे हुए बदल कर हटवा कर कोई विशेष महत्वपूर्ण सराहनीय कृत्य कर रहे हैं । जबकि अधिकांश ऐसे नाम उनके देश समाज के नवनिर्माण को समर्पण और योगदान को समझते हुए रखे गए थे । किसी राजनितिक लाभ या गुणगान के लिए हर्गिज़ नहीं । अपनी विचारधारा के विरोधी लोगों के नाम अपनी संकीर्ण राजनीती की खातिर बदलने से उन लोगों की छवि को कोई फर्क नहीं पड़ता है बल्कि भविष्य में खुद अपनी मानसिकता को उजागर कर प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं , कि हमने सत्ता हासिल कर निराशाजनक और नकारात्मक ढंग से कार्यशैली अपनाई थी । क्या खुद आपके पास सार्थक कर दिखाने को कुछ भी नहीं सूझता है ।
ऐसे कार्यों का समर्थन करने वाले लोगों ने पुराने देश को समर्पित राजनेताओं एवं उनके समाज के प्रति सरोकारों को समझे बगैर उनको लेकर संकीर्ण विचार बना लिए हैं , गहराई तक जाने उस समय की सामाजिक दशा को जाने बिना मनचाहे ढंग से । काश उनको मालूम होता कि देश समाज के हित में क्या ये उचित है कि पुराने बुद्धिजीवी समाजिक चिंतक विद्वान लोगों की कोशिशों की सराहना करना छोड़ आधुनिक समय की नकारात्मक बातों को उचित ठहराया जाना चाहिए । शायद बाद में इस सरकार के शासकों को भी पछतावा हो कि पिछले लोगों की आलोचना करने को छोड़ खुद कुछ सार्थक कल्याणकारी कार्य उन्होंने किया ही नहीं है । आजकल के युवाओं को हवा के साथ चलने वालों को धारा के विरुद्ध खड़े होकर बदलाव लाने का मतलब पता नहीं है । जो शासक सत्ता पर काबिज़ होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादा को नहीं समझता और चाहता है कि कोई विपक्ष रहना ही नहीं चाहिए क्या उसका समर्थन किया जाना देश और संविधान के अनुसार सही होगा अथवा जिस शासक ने अपने कार्यकाल में विपक्ष को आदर देना और महत्वपूर्ण समझा देश को एकता और शांति भाईचारे के मार्ग पर आगे बढ़ना जैसे मूल्यों को अपनाया उसका समर्थक होना चाहिए । सबसे पहला सवाल जिस धार्मिक विचारधारा की बात करते हैं क्या उसी के अनुसार किसी व्यक्ति के ज़िंदा नहीं रहने के बाद उसको लेकर असभ्य और अपमानजनक बातें करना क्या कहलाता है । अपनी सुविधा और साहूलियत से किसी एक को अच्छा और किसी एक को खराब साबित करने का प्रयास जबकि वास्तव में वो दोनों उस समय में साथ साथ मिलकर आपसी राय सहमति से निर्णय करते रहे हों क्या निम्न स्तर की कार्यशैली नहीं है ।
बात निकली तो सामाजिक राजनैतिक से आगे साहित्य पर भी हुई । साहित्य के भव्य आयोजन का अर्थ उत्कृष्ट साहित्य को बढ़ावा देना नहीं होता है । साहित्य सृजन करने वाले लेखकों को अपने समय की देश समाज की सही तस्वीर दिखलानी चाहिए जबकि कुछ जाने माने ख़ास लोगों ने इस में दोहरे मापदंड अपनाए हैं और धन दौलत नाम शोहरत सत्ता से नज़दीकी हासिल करने को वास्तविकता को उजागर करने का कर्तव्य नहीं निभाया है । उनकी फिल्मों गीतों कथाओं कहानियों ने आम दर्शक को भटकाने का कार्य किया है , आधा सच आधा झूठ मिलाकर वास्तविकता को अफ़साना बना दिया है और जो हक़ीक़त नहीं उसको वास्तविकता बनाकर अपनी लेखनी के साथ अन्याय किया है । सच नहीं लिख सकती जो कलम उसको कागज़ काले करना छोड़ना बेहतर होगा । शिक्षित वर्ग को केवल अपने हित की ही नहीं समाजिक सरोकार की भी चिंता होनी चाहिए और संवेदनशीलता पूर्वक न कि औपचरिक हल्की फुलकी बातें करने तक । काश उनको ध्यान आये कि देश गुलामी की जंज़ीरों से ही नहीं सामाजिक आडंबरों और दिखावे की कुरीतियों से अभी मुक्त नहीं हुआ है और किसी भी राजनेता दल या व्यक्ति की चाटुकारिता स्वयं में इक समस्या है गंभीर सवालात खड़े करती हुई । ग़ालिब के अप्फाज़ में नींद क्यों रात भर नहीं आती । बदलाव होना चाहिए मगर कैसा ये सवाल अवश्य समझना सोचना होगा , सड़कों इमारतों संस्थाओं के नाम बदलने से देश की तस्वीर नहीं बदलेगी न तकदीर ही बदल सकती है ।
Rajnaitik or sahityik logo pr swal khde krta achcha lekh👌
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-11-2022) को "गुरुनानक देव जी महाराज" (चर्चा अंक-4607) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चिंतन परक तथ्य देता सटीक आलेख।
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