सितंबर 27, 2022

POST : 1600 अंधकार की निशानियां हैं , ये चकाचौंध रौशनियां ( इंसानियत के खण्डर ) डॉ लोक सेतिया

अंधकार की निशानियां हैं , ये चकाचौंध रौशनियां  ( इंसानियत के खण्डर )

                                   डॉ लोक सेतिया 

किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता केवल अपनी सोच को व्यक्त करना चाहता हूं । तमाम लोग किसी शहर की रंग बिरंगी रौशनियां देख का आनंद और रोमांच का अनुभव करते हैं । कभी किसी जगह किसी दिन ख़ास अवसर पर सजावट और रौशनी का भव्य आयोजन किया जाता है । मुझे न जाने क्यों ये सब देख कर अलग तरह का एहसास होता है । सोचता हूं इन सब चमक दमक से देश समाज की बदहाली अंधकार क्या छुप गया है या शायद और भी अधिक दिखाई देता है । कुछ लोग बहुत सारा धन साधन कुछ पलों की इक दिखावे की ख़ुशी पर खर्च करते हैं पानी की तरह पैसा बहाते हैं वास्तव में बर्बाद करते हैं जबकि उनके हमारे आस पास गरीबी भूख बेबसी का जीवन जीते हैं करोड़ों लोग । इतना अंतर अमीर और गरीब का कोई विधाता की देन नहीं है बल्कि ये हमारी सामाजिक और सरकारी अमानवीय व्यवस्था के कारण होता रहा है हो रहा है और हम होने देना चाहते हैं । मेरी बात निराशाजनक लग सकती है जबकि निराशाजनक पहलू ये है कि हम अधिकांश से अधिक अथवा आवश्यकता से ज़्यादा पाकर खुद को भाग्यशाली और उन लोगों से बड़ा या बेहतर समझते हैं जिनको दो वक़्त रोटी भी नसीब नहीं है । लेकिन इस के बावजूद हम मानवता की देश दुनिया के कल्याण की बातें करते हैं और खुद को सभ्य मानते हैं । ये अजीब मंज़र है कोई नंगे बदन है भूख से बिलखता है जीने की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है तो कुछ हैं जिनकी चाहतें हसरतें ख़्वाहिशें बढ़ती जाती हैं ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती । धर्म की बात करें तो हर धर्म बताता है वास्तविक धर्म दीन दुःखियों की सहायता करना है संचय करना और व्यर्थ के आडंबर पर बर्बाद करना धर्म नहीं होता है , सबसे महत्वपूर्ण बात जिन के पास सब कुछ है लेकिन तब भी उनको और अधिक हासिल करने की चाहत है वो सबसे दरिद्र लोग होते हैं । 
 
पुरानी ऐतहासिक इमारतों को देखने लोग आते हैं और आचम्भित होते हैं शासकों के शानदार ठाठ बाठ और शाही तौर तरीके की निशानियां देख कर । मुझे वहां जाना अच्छा नहीं लगता है जाना होता है कभी किसी कारण तो देख कर सोचता हूं उन राजाओं ने शासकों ने इतना पैसा केवल अपनी विलासिता पर खर्च किया तो कितने आम नागरिक से कर वसूल कर और क्या उसी से देश राज्य समाज को ख़ुशहाल नहीं बनाया जा सकता था । ऐतहासिक स्थलों पर ये रईसी देख कर , और हाथी घोड़े पालकी की सवारी का लुत्फ़ उठाकर क्या समझते हैं कि हम शहंशाहों की तरह है जबकि वास्तव में हमको आधुनिक लोकतंत्र में सोचना कुछ और चाहिए वो ये कि ऐसा करना देश समाज राज्य के साथ अनुचित आचरण करना था और है । अन्यथा किताबों में ग्रंथों में नीति निर्धारक कथाओं में राजा को जनता का पालक और रक्षक नहीं बताया गया होता । जिन कार्यों का हमको विरोध करना चाहिए उन्हीं का गुणगान करते हैं इसी से समझ आता है कि हमको गुलामी दास्ता और आज़ादी का अंतर नहीं मालूम या उनके अर्थ नहीं समझते हैं । कितना अजीब विरोधाभास है हम महानगरीय जीवन जीना चाहते हैं शानदार बड़े बड़े राजमार्ग पर तेज़ गति से वाहन चलाना चाहते हैं लेकिन खण्डर जंगल को देखना चाहते हैं खेल तमाशा समझ कर । हमको जो बताया जाता है वो किसी सत्ताधारी द्वारा लिखवाया इतिहास का एक पक्ष है और उसका वास्तविक पहलू शायद कभी सामने नहीं आता है । उसको समझना ज़रूरी है इन सब बातों पर चिंतन विमर्श कर खुले दिमाग से । लेकिन हम नहीं करते ऐसा कभी भी क्योंकि ये हमें चिंतित और परेशान उदास कर सकते हैं जबकि हम ख़ुशी और आनंद की तलाश करते हैं चिंताओं से भागते हैं चिंतन से घबराते हैं । 
 
मृगतृष्णा की बात होती है , मुझे लगता है हमारा समाज और लोग उसी का शिकार हैं । चमकती हुई रेत को पानी समझ कर दौड़ रहे हैं उम्र भर भागते रहते हैं और आखिर प्यासे ही मर जाते हैं । कहीं ये किसी का अभिशाप तो नहीं जो हम सोचते हैं कोई वरदान मिला है । लिखने को बहुत है समझने को इतना काफी है। 
 

 

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