दिसंबर 03, 2022

लेखक-पुस्तक संवाद ( किताब की आत्मकथा ) डॉ लोक सेतिया

  लेखक-पुस्तक संवाद ( किताब की आत्मकथा ) डॉ लोक सेतिया

लेखक बहुत दिन से चिंतित था कुछ भी नया विषय लिखने को ध्यान में नहीं आ रहा था । बिस्तर पर करवट बदलते बदलते सामने रखी अलमारी पर निगाह जाकर ठहर गई कुछ हलचल सी भीतर महसूस हुई । लगा कोई किताब कह रही है मुझे इस बंद अलमारी से बाहर निकलना है । चाबियों का गुच्छा लिया मगर कोई भी चाबी ताला खोलने में सफल नहीं हुई तो सोचा कल सुबह उठ कर चाबीवाले को घर बुलाना होगा । आंख लग गई और सपने में किताब अपनी चुप्पी तोड़कर खुद बोलने लगी । लेखक पुस्तक संवाद होता रहा और लिखने वाले की नया विषय की तलाश पूर्ण हो गई और लिखी गई आत्मकथा किताब की । 
 
किताबें असंख्य विषयों पर लिखी जाती हैं साहित्य सांस्कृतिक ऐतहासिक धार्मिक देश काल विश्व भर की नित नई जानकारी खोज शोध से लेकर शिक्षा जगत स्कूल कॉलेज से विश्वविद्यालय तक की पढ़ाई को लेकर । लेकिन साधारण ढंग से किताबों को दो मुख्य भागों में बांट कर रख सकते हैं । पहली वो जो पाठक को किसी और काल्पनिक दुनिया में लेकर जाती हैं जहां चमक दमक जगमगाहट और असंभव को संभव होते दिखाई देते हैं चमत्कार से सब होता है लेकिन उन कथा कहानियों को लेकर शंका सवाल सोचने समझने की किसी को अनुमति नहीं है । लिखा है आपको बगैर सोचे विश्वास करना होगा अन्यथा आपको नादान नासमझ आदि कहकर नकारा जा सकता है । ऐसी तमाम किताबें आपको मानसिक तौर पर आज़ाद होकर चिंतन की अनुमति नहीं देती हैं । दूसरी वो जो पाठक को वास्तविक जीवन से परिचित करवाती हैं और जिन से सबक लेकर सीख कर पाठक ज़िंदगी में उनका उपयोग कर समस्याओं को समझने और समाधान खोजने का कार्य कर सकते हैं । 
 
इधर किताबें लिखने की दौड़ लगी हुई है लेकिन मकसद समाज को बदलना नहीं बल्कि नाम शोहरत और अन्य भौतिक वस्तुओं की चाहत हो गया है । लिखने वाला खुद लिख कर भूल जाता है और पाठक को देश समाज को कोई मार्गदर्शन अथवा सकारात्मक योगदान को लेकर उदासीन है । प्रकाशक किताब की गुणवत्ता परखे बिना छापते हैं सामान्य कारोबार की तरह धन दौलत कमाने की खातिर । बड़े बड़े शहरों में किताबों का बाज़ार लगाया जाता है जहां किताबों को तोलकर खरीदा बेचा जाता है किसी भाजी तरकारी या धातु या सामान की तरह से । किताब में लिखा कितना मूलयवान है महत्वपूर्ण है अथवा व्यर्थ की गतिविधि ही है कुछ फर्क नहीं पड़ता है सब एक भाव है टके सेर भाजी टके सेर खाजा जैसी बात है । किताबों की ऐसी दुर्दशा हमारे समाज की कड़वी वास्तविकता को दिखलाता है जहां इंसान से लेकर सामाजिक आदर्श और मूल्य तक कहीं फेंक दिए गए हैं । खोखली बातें करते हैं अनुसरण करना अनावश्यक लगता है । आधुनिक शिक्षा ने आदमी को बेजान मशीन जैसा बना दिया है जैसे कोई रॉबट या कम्प्यूटर जैसा प्रोग्राम किया गया है करता है । चिंतनशील विचारवान विवेकशील नहीं बनने देती आधुनिक शिक्षा । 
 
शिक्षा विज्ञान विकास और विनाश को नहीं परखते हैं , साधन बनाने की खातिर समाज को उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां बर्बादी और मानवीयता के अंत को सामने देख हैरान हैं । अब कोई सोचता तक नहीं कि हम कब कहां भटक गए और देश समाज दुनिया को बेहतर बनाने की जगह खतरनाक गहरी खाई में ले आये हैं जबकि समझते रहे कि शिखर पर चढ़ रहे हैं । जवीन उपयोगी किताबों को बंद अलमारियों में सजाकर रखना पढ़ना छोड़ कर यही करते रहने का परिणाम है । इक ताला जो हमारे दिमाग़ को लगा है खुलता नहीं है और बंद अलमारी में रखी किताबों की तरह दीमक की तरह खोखला कर रहा है । जिनके ज़हनों में अंधेरा है बहुत , दूर उन्हें लगता सवेरा है बहुत । मेरी इक पुरानी ग़ज़ल का मतला याद आता है ।    
 

 

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